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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586

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मनुष्य यदि जीवन के लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को


असल, नये औऱ स्वतन्त्र विचार, जो अभी तक  इस संसार में सोचे गये हैं केवल मुट्ठी भर ही हैं। उन लोगों ने जो विचार हमारे लिए छोड़े हैं, उनको उन्हीं की पुस्तकों में से पढ़ो तो वे हमें कोई बहुत बड़े नहीं प्रतीत होते। परन्तु फिर भी हम यह जानते हैं कि अपने जमाने में वे बहुत बड़े हो गये हैं। इसका कारण क्या है? वे जो बहुत बड़े प्रतीत होते थे, वह केवल उनके सोचे हुए विचारों या उनकी लिखी हुई पुस्तकों के कारण नहीं था, और न उनके दिये हुए भाषणों के कारण ही था, वरन् किसी एक दूसरी ही बात के कारण, जो अब निकल गयी है, और वह था उनका व्यक्तित्व।

जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, व्यक्तित्व दो-तृतीयांश होता है औऱ शेष एक-तृतीयांश होता है- मनुष्य की बुद्धि और उसके कहे हुए शब्द।

सच्चा मनुष्यत्व या उसका व्यक्तित्व ही वही वस्तु है, जो हम पर प्रभाव डालती है। हमारे कर्म हमारे व्यक्तित्व की बाह्य अभिव्यक्ति मात्र है। प्रभावी व्यक्तित्व कर्म के रूप से प्रकट होगा ही-कारण के रहते हुए कार्य का आविर्भाव अवश्यम्भावी है।

सम्पूर्ण शिक्षा तथा समस्त अध्ययन का एकमेव उद्देश्य है इस व्यक्तित्व को गढ़ना। परन्तु हम यह न करके केवल बहिरंग पर ही पानी चढ़ाने का सदा प्रयत्न किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ? सारी शिक्षा का ध्येय है मनुष्य का विकास। वह अन्तर्भाव वह व्यक्तित्व, जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू-सा कर देता है, शक्ति का एक महान् केन्द्र है, और जब यह शक्तिशाली अन्तर्मानव तैयार हो जाता है, तो वह जो चाहे कर सकता है। यह व्यक्तित्व जिस वस्तु पर अपना प्रभाव डालता है, उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है।

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