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व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मेरा जीवन तथा ध्येय

मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


यदि यह कार्य करने के लिए अथाह समुद्र के मार्ग में जाना पड़े, सदा सब तरह से मौत का सामना करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना ही पड़ेगा। यही हमारे लिए परम आवश्यक है। और इस शक्ति को प्राप्त करने का पहला उपाय है - उपनिषदों पर विश्वास करना और यह विश्वास करना कि 'मैं आत्मा हूँ।' उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं। सैकड़ों वर्षों से लोगों को मनुष्य की हीनावस्था का ही ज्ञान कराया गया है।.. अब उनको आत्मतत्त्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीचे में भी आत्मा विद्यमान है वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है।

जहाँ भी बुराई दिखाई देती है, वहीं अज्ञान भी मौजूद रहता है। मैंने अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा मालूम किया है और यही शास्त्रों में भी कहा गया है कि भेद-बुद्धि से ही संसार में सारे अशुभ और अभेद-बुद्धि से ही सारे शुभ फलते हैं। यदि सारी विभिन्नताओं के अंदर ईश्वर के एकत्व पर विश्वास किया जाय, तो सब प्रकार से संसार का कल्याण किया जा सकता है। यही वेदांत का सर्वोच्च आदर्श है। वेदांत के इन महान् तत्त्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा गिरि-गुफाओं में आबद्ध नहीं रहेंगे, वकीलों और न्यायाधीशों में, प्रार्थना-मंदिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रो के अध्ययनस्थानों में - सर्वत्र ही इन तत्त्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जायेंगे। हर एक व्यक्ति, हर एक संतान चाहे जो काम करे, चाहे जिस अवस्था में हो - उनकी पुकार सब के लिए है। इनका अवलंबन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे, भारत का उद्धार निश्चित है।

'यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर भी यदि किसी को अधिक तथा किसी को कम सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है।' अर्थात् चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं। यदि किसी ब्राह्मण के पुत्र के लिए एक शिक्षक आवश्यक हो, तो चांडाल के लड़के के लिए दस शिक्षक चाहिए। कारण यह है कि जिसकी बुद्धि की स्वाभाविक प्रखरता प्रकृति के द्वारा नहीं हुई है, उसके लिए अधिक सहायता करनी होगी।

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