व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार-बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अंतर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है?
महामोह के ग्राह से ग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो, हाय, उनके हृदयभेदक करुणापूर्ण आर्तनाद को सुनो। हे वीरो, बद्धों को पाशमुक्त करने के लिए, दरिद्रों के कष्टों को कम करने के लिए तथा अज्ञजनों के अंतर का असीम अंधकार दूर करने के लिए आगे बढ़ो। हृदयहीन, कोरे बुद्धिवादी लेखकों और समाचारपत्रों में प्रकाशित उनके निस्तेज लेखों की भी परवाह मत करो। मेरे भाईयों, हम लोग गरीब हैं, नगण्य हैं, कितु हम जैसे गरीब लोग ही हमेशा उस परम पुरुष के यंत्र बने हैं। संसार में जितने भी बड़े-बड़े और महान् कार्य हुए हैं, उन्हें गरीबों ने ही किया है। आशा तुम लोगों से है - जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपरायण हैं। हमेशा बढ़ते चलो। मरते दम तक गरीबों और पददिलतों के लिए सहानुभूति यही हमारा आदर्शवाक्य है। वीर युवको! बढ़े चलो! ईश्वर के प्रति आस्था रखो। किसी चालबाजी की आवश्यकता नहीं, उससे कुछ नहीं होता। दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो - वह अवश्य मिलेगी।.. युवकों में गरीबों मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। यदि तुम सचमुच मेरी संतान हो, तो तुम किसी से न डरोगे, न किसी बात पर रुकोगे। तुम सिंहतुल्य होगे। हमें भारत को और पूरे संसार को जगाना है।
गाँव-गाँव तथा घर-घर में जाकर लोकहित एवं ऐसे कार्यों में आत्मनियोग करो, जिससे कि जगत् का कल्याण हो सके। चाहे अपने को नरक में क्यों न जाना पड़े, परंतु दूसरों की मुक्ति हो। अरे, मृत्यु जब अवश्यंभावी है तो ईंट-पत्थरों की तरह मरने के बजाय वीर की तरह मरना क्या अच्छा नहीं?.. जराजीर्ण होकर थोड़ा-थोड़ा करके क्षीण होते हुए मरने के बजाय वीर की तरह दूसरों के अल्प कल्याण के लिए लड़कर उसी समय मर जाना अच्छा है।
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