व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
ब्राह्मणों ने ही तो धर्मशास्त्रों पर एकाधिकार जमाकर विधि-निषेधों को अपने ही हाथ में रखा था और भारत की दूसरी जातियों को नीच क्रहकर उनके मन में विश्वास जमा दिया था कि वे वास्तव में नीच हैं। यदि किसी व्यक्ति को खाते, सोते, उठते, बैठते, हर समय कोई कहता रहे कि 'तू नीच है', 'तू नीच है' तो कुछ समय के पश्चात् उसकी यह धारणा हो जाती है कि 'मैं वास्तव में नीच हूँ।' इसे सम्मोहित (हिप्नोटाइज) करना कहते हैं।
मैं तो जाति-पांति के मामलों में किसी भी वर्ग के प्रति कोई पक्षपात नहीं रखता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह एक सामाजिक नियम है और गुण एवं कर्म के भेद पर आधारित है।
जात-पाँत की ही बात लीजिए। संस्कृत में 'जाति' का अर्थ है वर्ग या श्रेणी विशेष। जाति का मूल अर्थ था प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता और यही अर्थ हजारों वर्षों तक प्रचलित भी रहा।
जैसे हर एक व्यक्ति में सत्त्व, रज और तम, तीनों गुण न्यूनाधिक अंश में वर्तमान हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण एवं क्षत्रिय आदि के गुण भी सब मनुष्यों में जन्मजात ही न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं। समय-समय पर उनमें से एक न एक गुण अधिक प्रबल होकर, उनके कार्यकलापों में प्रकट होता रहता है। आप मनुष्य का दैनिक जीवनक्रम लें - जब वह अर्थ प्राप्ति के लिए किसी की सेवा करता है, तो वह शूद्र होता है; जब वह स्वयं अपने लाभ के लिए कोई क्रय-विक्रय करता है, तो उसकी वैश्य संज्ञा हो जाती है; जब वह अन्याय के विरुद्ध अस्त्र उठाता है, तो उसमें क्षात्र भाव सर्वोपरि होता है, और जब वह ईश्वरचिंतन में लगता है, भगवान का कीर्तन करता है, तो ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है।
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