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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास

12

कुबेर को पिताजी की एक बात मन में लगी थी। वह यह कि उसके शासन में दोष था। अन्यथा उसके तीस वर्ष से ऊपर के लंका में राज्य करने पर भी उसके सहायक नगण्य थे। इस अवस्था में वह इन्द्र के पास सहायता लेने के लिये नहीं पहुँचा। वह उसी रात लंका पहुँचा और अपने परिवार को पुष्पक विमान में चढ़ाकर पिता के आश्रम में आ गया। वहाँ से उसने अपने लिये एक नया नगर देवलोक की सीमा पर कैलाश के चरणों में बना लिया और वहाँ जाकर रहने लगा।

लंका में अगले दिन नियत समय पर प्रहस्त कुबेर का निर्णय जानने के लिये राजप्रासाद में पहुँचा तो प्रासाद को खाली देख समझ गया कि कुबेर लंका का राज्य अपने भाई दशग्रीव के लिये छोड़ गया है।

दशग्रीव अपने नाना के जाति वालों की सहायता से ही लंका का राज्य पा सका था। अतः पहला काम जो उसने किया, वह राक्षसों के अतिरिक्त अन्य सबकों वहाँ से चले जाने का आदेश दे दिया। दक्षिण भारत के लोग एक अल्प संख्या में वहाँ आकर बस गये थे। वह लंका छोड़ने लगे तो उनका धन-दौलत और स्त्री-वर्ग छीन लिया गया। यह कहा गया कि यह देश की विभूति है। इनको वे देश से बाहर ले जाने नहीं देंगे।

इसके साथ ही राक्षसों की धर्म-व्यवस्था स्थापित कर दी गयी। यह थी बलवानों की कही बात को प्रमाण मानना। राज्याधिकारी शक्तिशाली ही नियुक्त होते थे।

जब लंका में राक्षस राज्य स्थापित हो गया, तब राक्षस अपना पूर्ण इतिहास और उसकी प्रभुता स्मरण कर गर्व अनुभव करने लगे। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि जिन्होंने उस काल में गर्व भंग किया था, उनके प्रति घृणा और द्वेष उभरने लगा और दशग्रीव यद्यपि एक ऋषि की सन्तान था और एक ऋषि आश्रम में पला था। तो भी इस जातीय मनोद्गारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा।

अतएव विष्णु एक अत्यन्त घृणित शब्द हो गया। विष्णु तो उस समय जीवित नहीं था, परन्तु उसके सजातीय देवलोक में राज्य करते थे। अतः देवलोक का भूतल से नामो-निशान मिटा देने का संकल्प करने लगा।

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