उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
महाराज अर्जुन से तो भेंट अगले दिन ही हुई। दोनों बन्दियों को राज्य-सभा में उपस्थित किया गया। जब दोनों बन्दी सामने उपस्थित हुए तो राजा ने लाने वाले से पूछा, ‘‘ये कौन है?’’
‘‘महाराज! कल ये अपने साथ दो सहस्त्र के लगभग सैनिकों को एक बृहतकार विमान में लिये हुए नर्मदा के किनारे पर उतरे थे। इनमें जो यह कुछ छोटे कद का व्यक्ति है, राजप्रासाद के बाहर द्वारपाल से कहने आया था कि वह लंकाधिपति रावण का दूत है। रावण की आज्ञा से वह आया है और रावण चाहता है कि महाराज तुरन्त उसके पास भेंट-पूजा लेकर पहुँचें। यदि नहीं पहुँचेंगे तो ये पुरी पर आक्रमण कर देंगे। पुरी को लूट लेंगे और यहाँ के राजा को बन्दी बना अपने साथ ले जायेंगे।’’
‘‘तो तुम लंकाधिपति हो?’’ राजा ने दशग्रीव से पूछा।
दशग्रीव अपराधियों की भाँति सामने खड़ा क्रोध से लाल-पीला हो रहा। परन्तु उसके हाथ पीठ के पीछे सुदृढ़ रस्सों से बँधे हुए थे। विवश उसने कहा, ‘‘हाँ।’’
‘‘प्रमाण?’’
‘‘नदी के किनारे खड़ा पुष्पक विमान जो देवलोक की विजय पर मुझे मिला है।’’
‘‘तो उस खिलौने को पाकर तुम समझते हो कि तुम्हारा अधिकार हो गया है कि सबसे भेंट-पूजा प्राप्त करो?’’
रावण चुप रहा।
‘‘हम चाहें तो तुम्हारे विमान को आधे पल में फूँक मार कर भस्म कर सकते हैं। हम तो तुम सब को वहीं अपने अग्निबाग से फूँक भस्म कर सकते थे। परन्तु हमने समझा कि तुम्हारा यह खिलौना टूट गया तो तुम रोने लगोगे और यदि तुम सबको मार डाला तो तुमको दण्ड नहीं मिलेगा। इस कारण हमने अपने किचित् मात्र प्रयत्न से तुम्हें बन्दी बनाना ही उचित समझा है।’’
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