उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘तो यह आपने हमें बन्दी बनाया है क्या? यह तो नदी की बाढ़ ने हमें विवश कर दिया है।’’
‘‘नहीं दशग्रीव! यह हमारी ही योजना थी। हमने नदी को बहने से रोक दिया था। हम जानते थे कि तुम डूब कर मर जाओगे, परन्तु हम तुम्हें इस प्रकार अपने सामने बन्दी बने खड़ा देखना चाहते थे।
‘‘सुनाओ, कल रात और आज प्रातः खाने-पीने को कुछ मिला है। अथवा नहीं?’’
रावण ने कुछ उत्तर नहीं दिया। मारीच बोल पड़ा, ‘‘श्रीमान्! हम भी एक विस्तृत देश के राजा हैं। हमने अपने शौर्य से देवलोक विजय किया है और हम आशा करते हैं कि हमारे साथ राजाओं का-सा व्यवहार किया जाये।’’
‘‘ठीक है। आप जैसे श्रीमानों को तो बन्दी बना रखा जाना चाहिये, जब तक आपके मूल्य की राशि न मिल जाये।’’
‘‘कितनी धन-राशि चाहिये?’’
‘‘सात कोटि स्वर्ण मुद्रा और लिखित क्षमा-याचिका। उस याचिका में यह शर्त कि आप पुनः विन्ध्याचल पार कर इस राज्य में पाँव नहीं रखेंगे।’’
‘‘यह हम नहीं देंगे। हमारी सेना के सेनाध्यक्ष राजकुमार मेघनाथ इधर से ही लंका लौट रहे हैं और यदि उसे पता चल गया कि हम बन्दी हैं तो वह इस देश पर आक्रमण कर देगा। तब यहाँ की ईट-से-ईट बजा देगा।’’
‘‘आने दो। राजन, उसे कहलवा भेजो कि इधर न आये, अन्यथा वह भी आपकी भाँति पकड़ बन्दी बना लिया जायेगा और फिर आपके ही आगार में रखा जायेगा। परिणाम यह होगा कि उस छोटे-से आगार में तीन व्यक्तियों के रहने से कष्ट आपको भी होगा।
‘‘देखो रावण! तुम्हारे दो सहस्त्र सैनिकों में से डेढ़ सहस्त्र जल-प्लावन में डूब कर मर गये हैं। यदि पूर्ण सेना भी तुम्हारे साथ होती तो उसका भी तीन-चौथाई भाग विनष्ट हो चुका होता। यदि अब तुम्हारे राजकुमार यहाँ आयेंगे तो तुम्हारा वंश ही निःशेष हो जायेगा। अभी वंश तो चल रहा है।
|