उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
गरिमा ने कहा, ‘‘परन्तु आप यह सूचना महिमा को नहीं दीजियेगा।’’
‘‘आखिर उसे पता तो चलेगा ही।’’
‘‘वह अभी भी अपने मन में एक धीमी-सी आशा रखती है और मैं समझती हूँ कि बच्चा होने तक तो यह आशा बनी ही रहनी चाहिये। पीछे यह सूचना दी जा सकेगी। दीदी एक दिन कह रही थी कि वह जीवित हैं। कहीं किसी स्त्री के चक्कर में पाकिस्तान में मुसलमान बन रहे हैं।’’
कुलवन्त ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘उसे अपने पति की निष्ठा पर सन्देह अमिट बना हुआ है।’’
‘‘तो क्या आप समझते हैं कि वह सुधर चुके थे?’’
‘‘वह आठ-दस दिन ही तो मेरे अधीन यहाँ रहा है। मेरा उससे किसी प्रकार का घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं बना था और मैं कह नहीं सकता कि वह कैसा जीवन व्यतीत करता है।’’
‘‘कुछ भी हो, यह सूचना, कम-से-कम अभी तो नहीं देनी चाहिये।’’
इस पर कुलवन्त ने एक दूसरी सूचना दे दी। उसने कहा, ‘‘मुझे कदाचित् इंगलैण्ड भेजा जायेगा। वहाँ ट्रेनिंग के लिये बीस चुने हुए व्यक्ति जा रहे हैं। मेरा नाम भी उनमें है।’’
‘‘कितने काल के लिये यह ट्रेंनिग होगी?’’
‘‘यह अभी निश्चय नहीं। इस पर भी यह विचार किया जा रहा है कि यह प्रशिक्षण तीन से छः महीने तक होगा।’’
‘‘तो मुझे भी साथ चलना होगा?’’
‘‘मैं समझता हूँ कि यह सम्भव नहीं होगा।’’
इस पर गरिमा का मुख उतर गया। उसे उदास देख कुलवन्त ने पूछ लिया, ‘‘तो कहाँ रहोगी?’’ वह पत्नी का ध्यान छः मास के वियोग से हटा कर पीछे रहने के प्रबन्ध के विषय में विचार करने पर लगाना चाहता था।
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