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			 धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा पवहारी बाबास्वामी विवेकानन्द
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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।
इन पंक्तियों को लिखते समय मानो हमारे सामने उन कवचधारी पार्थसारथि की झलक दिखाई पड़ जाती है, जो दोनों विरोधी सैन्यों के बीच अपने रथ पर खड़े होकर अपने बायें हाथ से तेज अश्वों को रोक रहे हैं, और अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से विशाल सेना को निहार रहे हैं तथा मानो अपनी जन्मजात-प्रवृत्ति द्वारा दोनों दलों की रणसज्जा की प्रत्येक बात को तौल रहे हैं। साथ ही मानो उनके ओठों से भयाकुल अर्जुन को रोमांचित करनेवाला कर्म का वह अत्यद्भुत रहस्य निकल रहा है -
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
न बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।। 
'जो कर्म में अकर्म अर्थात् विश्राम या शान्ति, एवं अकर्म अर्थात् शान्ति में कर्म देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान् है, वही योगी है, और उसी ने सब कर्म कर लिये हैं।'
यही पूर्ण आदर्श है। परन्तु बहुत ही कम लोग इस आदर्श को प्राप्त कर पाते हैं। अतएव परिस्थितियाँ जैसी भी हों, हमें उन्हें ग्रहण करना ही चाहिए तथा विभिन्न व्यक्तियों में विकसित मानवी पूर्णता के भिन्न-भिन्न पहलुओं को एकत्र करके सन्तोष करना चाहिए।
धर्म के क्षेत्र में चार प्रकार के साधक होते हैं - 
गम्भीर चिन्तनशील (ज्ञानयोगी), 
दूसरों की सहायता के लिए प्रबल कर्मशील (कर्मयोगी), 
साहस और निर्भीकता के साथ आत्मानुभूति प्राप्त कर लेने में अग्रसर (राजयोगी) तथा 
शान्त एवं विनम्र (भक्तियोगी)।
						
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