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धर्म एवं दर्शन >> सरल राजयोग

सरल राजयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :73
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9599

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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण


नारद नाम के एक पहुँचे हुए ऋषि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े-बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े-बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक महायोगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान कर रहा है। बह ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों और दीमक का ढेर लग गया है।

उसने नारद से पूछा,  ''प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं?'' नारदजी ने उत्तर दिया, ''मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ।'' तब उसने कहा, ''अच्छा, आप भगवान् से पूछते आएँ वे मुझ पर कब कृपा करेंगे; मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा।''

फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूद-फाँद रहा था, कभी नाचता था तो कभी गाता था। उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया। उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, वाग्भंगी आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया। वह बोला, ''अच्छा, तो भगवान् से पूछते आएँ, कब तक मुक्त होऊँगा।''

लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, ''देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?''

नारदजी बोले, ''हाँ पूछी थी।''

योगी ने पूछा, ''तो उन्होंने क्या कहा?''

नारदजी ने उत्तर दिया, ''भगबान् ने कहा, मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे।''

तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, ''मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!''

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