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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


96, स्वामीजी से किसी ने पूछा : ''क्या बुद्ध ने उपदेश दिया था कि नानात्व सत्य है और अहं असत्य है, जब कि सनातनी हिन्दू धर्म एक को सत्य और अनेक (या नानात्व) को असत्य मानता है?'' स्वामीजी ने उत्तर दिया, ''हाँ, और भगवान् श्रीरामकृष्ण तथा मैंने इसमें जो कुछ जोड़ा है, वह यह है : अनेक और एक, एक ही तत्व हैं, जो मन द्वारा विभिन्न समय पर और विभिन्न वृत्तियों मे अनुभूत होता है।''

97. ''याद रखो!'' उन्होंने एक बार अपने शिष्य से कहा, ''याद रखो! भारत का सदैव यही सन्देश रहा है : 'आत्मा प्रकृति के लिए नहीं, वरन् प्रकृति आत्मा के लिए है!''

98. जिस बात की दुनियां को आज आवश्यकता है, वह है बीस ऐसे स्त्री-पुरुष जो सड़क पर खड़े होकर सब के सामने यह कहने का साहस कर सकें कि हमारे पास ईश्वर को छोड्कर और कुछ नहीं है। कौन निकलेगा? डर की क्या बात है? यदि यह सत्य है, तो और किसी बात की क्या परवाह? यदि यह सत्य नहीं है, तो हमारे जीवन का मूल्य ही क्या है?

99. आह! कितना शान्तिपूर्ण हो जाता है उस व्यक्ति का कर्म जो मनुष्य की ईश्वरता से सचमुच अवगत हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि वह लोगो की आँखे खोलता रहे। शेष सब अपने आप हो जाता है।

100. उन (श्रीरामकृष्ण) को वह महान् जीवन जीने मात्र में ही सन्तोष था। उसकी व्याख्या की खोजबीन उन्होंने दूसरो पर छोड़ दी थी।

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