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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


105. एक शिष्या के कथन का उत्तर देते हुए, जिसके विचार में मोक्ष की उत्कट अभिलाषा लेकर व्यक्तिगत मुक्ति के लिए प्रयत्न करने की अपेक्षा अपने प्रिय आदर्शों की पूर्ति के लिए बारम्बार जन्म लेना उसके लिए अधिक श्रेयस्कर होगा, स्वामीजी ने तत्काल उत्तर दिया, ''इसका कारण यह है कि तुम प्रगति के विचार के ऊपर विजय नहीं प्राप्त कर पाती। किन्तु चीजों की अच्छाई मे वृद्धि नहीं होती। वे तो जैसी की तैसी रहती हैं; और हम उनमें जो परिवर्तन करते हैं, उसके अनुसार 'हम' श्रेष्ठतर होते चलते हैं।''

106. अलमोड़ा में एक वयोवृद्ध सज्जन, जिनका मुख दयनीय दुर्बलता से पूर्ण था, आये और उनसे कर्म के सम्बन्ध मे एक प्रश्न पूछा। उन्होंने पूछा कि जिनके कर्म में सबलों के द्वारा दुर्बलों को सताये जाते हुए देखना हो, उन्हें क्या करना चाहिए? स्वामीजी ने उन पर विस्मयपूर्ण रोष प्रकट करते हुए कहा, ''क्यों, निश्चय ही बलवानों को ठोक दो। इस कर्म में तुम अपना योग भूल जाते हो, तुम्हें विद्रोह करने का अधिकार सदैव है।''

107. किसी ने स्वामीजी से पूछा, ''औचित्य की रक्षा के निमित्त मनुष्य को आत्म-बलिदान करने के लिए उद्यत होना उचित है अथवा गीता की शिक्षा मानकर कभी भी प्रतिक्रिया न करने का पाठ सीखना?'' स्वामीजी ने धीरे-धीरे कहा, ''मैं तो प्रतिक्रियाहीन होने के पक्ष में हूँ।'' फिर कुछ देर तक चुप रहकर उन्होंने कहा - ''संन्यासियों के लिए। गृहस्थ के लिए आत्मरक्षा!''

108. यह सोचना भूल है कि सभी मनुष्यों के लिए सुख ही प्रेरणा होता है। उतनी ही बड़ी संख्या तो उनकी भी है जो दुःख की खोज करने के ही लिए जन्म लेते हैं। आओ, हम लोग भी 'कराल' की उपासना 'कराल' के ही निमित्त करें।

109. भगवान श्रीरामकृष्ण ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो सदैव यह कहने का साहस रखते थे कि हमें सभी लोगों को उनकी ही भाषा में उत्तर देना चाहिए।

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