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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


125. यदि स्वयं यह संसार ही नष्ट हो जाय, तो मैं क्यों चिन्ता करूँ? मेरे दर्शन के अनुसार तो तुम जानते हो, यह एक बड़ी अच्छी बात होगी! परन्तु वास्तव में वह सब जो मेरे विरुद्ध है, वह तो अन्त में भी मेरे साथ रहेगा। क्या मैं उसका (माता का) सैनिक नहीं हूँ?

126. हाँ, मेरा अपना जीवन किसी एक महान् व्यक्ति के उत्साह के द्वारा प्रेरित है, पर इससे क्या? कभी भी एक व्यक्ति के द्वारा संसार भर को प्रेरणा नहीं मिली! यह सत्य है कि मैं इस बात में विश्वास करता हूँ कि भगवान् श्रीरामकृष्ण सचमुच ईश्वर-प्रेरित थे। परन्तु मैं भी प्रेरित किया गया हूँ और तुम भी प्रेरित किये गये हो। तुम्हारे शिष्य भी ऐसे ही होंगे, और उनके बाद उनके शिष्य भी। यही क्रम कालान्त तक चलेगा।

क्या तुम नहीं देखते कि गुह्य व्याख्याओं का युग समाप्त हो गया है? भले के लिए हो या बुरे के लिए, वह दिन चला गया, कभी न लौटने के लिए। भविष्य में सत्य संसार के लिए खुला रहेगा!

127. बुद्ध ने यह मानकर एक घातक भूल की थी कि समस्त विश्व उपनिषदों की ऊँचाई, तक उठाया जा सकता है। और स्वार्थ ने सब कुछ विकृत कर डाला। कृष्ण अधिक दूरदर्शी थे, क्योंकि वे अधिक राजनीतिज्ञ थे। किन्तु बुद्ध समझौता नहीं चाहते थे। इसके पूर्व दुनिया ने अवतारी को भी समझौते से विनष्ट होते देखा है, मान्यता के अभाव में मृत्यु की यन्त्रणा भोगते और लुप्त होते देखा है। एक क्षण के समझौते के बल पर बुद्ध अपने जीवनकाल में ही समस्त एशिया में ईश्वर की तरह पूजे जा सकते थे। परन्तु उनका केवल यही उत्तर था, बुद्ध की स्थिति एक सिद्धि है, वह एक व्यक्ति नहीं है। सचमुच, समस्त संसार में वे ही एक ऐसे मनुष्य थे, जो सदैव नितान्त प्रकृतिस्थ रहे जितने मनुष्यों ने जन्म लिया है उनमें अकेले एक प्रबुद्ध मानव!

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