धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
38. न्यूयार्क में स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ''मैं बहुत चाहता हूँ कि हमारी स्त्रियों में तुम्हारी बौद्धिकता होती, परन्तु यदि वह चारित्रिक पवित्रता का मूल्य देकर ही आ सकती हो, तो मैं उसे नहीं चाहूँगा। तुमको जो कुछ आता है, उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन जो बुरा है, उसे गुलाबों से ढककर अच्छा कहने का जो यत्न तुम करती हो, उससे मैं नफरत करता हूँ। बौद्धिकता ही परम श्रेय नहीं है। नैतिकता और आध्यात्मिकता के लिए हम प्रयत्न करते हैं। हमारी स्त्रियाँ इतनी विदुषी नहीं, परन्तु वे अधिक पवित्र हैं। प्रत्येक स्त्री के लिए अपने पति को छोड़ अन्य कोई भी पुरुष पुत्र जैसा होना चाहिए।
''प्रत्येक पुरुष के लिए अपनी पत्नी को छोड़ अन्य सब स्त्रियाँ माता के समान होनी चाहिए। जब मैं अपने आसपास देखता हूँ और स्त्री-दाक्षिण्य के नाम पर जो कुछ चलता है, वह देखता हूँ, तो मेरी आत्मा ग्लानि से भर उठती है। जब तक तुम्हारी स्त्रियाँ यौन-सम्बन्धी प्रश्न की उपेक्षा करके सामान्य मानवता के स्तर पर नहीं मिलती, उनका सच्चा विकास नहीं होगा। तब तक वे सिर्फ खिलौना बनी रहेगी, और कुछ नहीं। यही सब तलाक का कारण है। तुम्हारे पुरुष नीचे झुकते हैं और कुर्सी देते हैं, मगर दूसरे ही क्षण वे प्रशंसा में कहना शुरू करते हैं - 'देवीजी, तुम्हारी आँखें कितनी सुन्दर है!' उन्हें यह करने का क्या अधिकार है? 'एक पुरुष इतना साहस क्यों कर पाता है, और तुम स्त्रियाँ कैसे इसकी अनुमति दे सकती हो? ऐसी चीजों से मानवता के अधमतर पक्ष का विकास होता है। उनसे श्रेष्ठ आदर्शों की ओर हम नहीं बढ़ते।
''हम स्त्री और पुरुष हैं, हमें यही न सोचकर सोचना चाहिए कि हम मानव हैं, जो एक दूसरे की सहायता करने और एक दूसरे के काम आने के लिए जन्मे हैं। ज्यों ही एक तरुण और तरुणी एकान्त पाते हैं, वह उसकी आशंसा करना शुरू करता है, और इस प्रकार विवाह के रूप में पत्नीग्रहण करने के पहले वह दो सौ स्त्रियों से प्रेम कर चुका होता है। वाह ! यदि मैं विवाह करनेवालों में से एक होता, तो मैं प्रेम करने के लिए ऐसी ही स्त्री खोजता, जिससे यह सब कुछ न करना होता।
''जब मैं भारत में था और बाहर से इन चीजों को देखता था, तो मुझसे कहा जाता था, यह सब ठीक है, यह निरा मनबहलाव है, मनोरंजन है, और मैं उसमें विश्वास करता था। परन्तु उसके बाद मैंने काफी यात्रा की है, और मैं जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। यह गलत हैं, सिर्फ तुम पश्चिमवाले अपनी आँखे मूँदे हो और उसे अच्छा कहते हो। पश्चिम के देशों की दिक्कत यह है कि वे बच्चे हैं, मूर्ख हैं, चंचल-चित्त हैं और समृद्ध हैं। इनमें से एक ही गुण अनर्थ करने के लिए काफी है; लेकिन जब ये तीनों, चारों एकत्र हों, तो सावधान!''
सब के बारे में ही स्वामीजी कठोर थे। बोस्टन में सब से कड़ी बात उन्होंने कही - ''सब में बोस्टन सर्वाधिक बुरा है। वहाँ की स्त्रियाँ सब चंचलाएँ, किसी न किसी धुन (fad) को माननेवाली, सदा नये और अनोखे की तलाश में रहती हैं।''
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