| व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
      सीखने की क्रिया तथा
        कल्पना शक्ति - कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक
      विकल्पों का परीक्षण करता है। यह कई चीजों पर विचार करता है। मन की यह क्रिया
      मनस् कहलाती है। कल्पना तथा धारणाओं का निर्माण भी मनस् की ही क्रिया है।
      
      निश्चय करना तथा निर्णय
        लेना - बुद्धि ही वह शक्ति है जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है।
      इसमें सभी चीजों के भले तथा बुरे पक्षों पर विचार करके वाँछनीय क्या है यह
      जानने की क्षमता होती है। यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति है, जो उसे भला
      क्या है तथा बुरा क्या है करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से
      उचित क्या है तथा अनुचित क्या है इसका बिचार करने की क्षमता प्रदान करती है।
      यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व विकास के लिए परम आवश्यक है,
      अतः मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वाधिक महत्व का है।
      
      अहं का बोध - सभी
      शारीरिक तया मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके - मैं खाता हूं, मैं
      देखता हूं, मैं बोलता हूं, मैं सुनता हूं, मैं सोचता हूं, मैं द्विधाग्रस्त
      होता हूं, आदि - इसी को अहंकार या ‘मैं'-वोध कहते हैं। जब तक यह 'मैं' स्वयं
      को असंयमित देह-मन से जोड़ लेता है तब तक मानव-जीवन इस संसार की घटनाओं तथा
      परिस्थितियों से परिचालित होता है। (इसके फलस्वरूप) हम प्रिय घटनाओं से सुखी
      होते हैं एवं अप्रिय घटनाओं से दुखी होते हैं। मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित
      होता जाता है उतना ही हमें इस मैं-बोध के मूल स्रोत का पता चलता जाता है। और
      उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में स्रन्तुलित तथा साम्यावस्था को
      प्राप्त होता जाता है। ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों द्वारा
      विचलित नहीं होता। 
      
      मनस्, बुद्धि, चित्त और
        अहंकार - मन के ये चार बिल्कुल अलग अलग विभाग नहीं है। एक ही मन को
      उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न भिन्न नाम दिये गये हैं।
      			
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