व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
भगवद्गीता का कहना है कि असंयमित मन एक शत्रु के समान और संयमित मन हमारे
मित्र के समान आचरण करता है। अतः हमें अपने मन की प्रक्रिया के विषय में एक
स्पष्ट धारणा रखने की आवश्यकता है। क्या हम इसे अपने आज्ञा पालन में, अपने
साथ सहयोग करने में प्रशिक्षित कर सकते हैं' किस प्रकार यह हमारे व्यक्तित्व
के विकास में योगदान कर सकता है?
मन की चार तरह की क्रियाएँ
मानव मन की चार मूलभूत क्रियाएं हैं। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा
सकता है। मान लो मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिलता हूं जिनसे मैं लगभग दस वर्ष
पूर्व मिल चुका हूँ। मैं याद करने का प्रयास करता हूं कि मैं उससे कब मिला
हूं और वह कौन है। यह देखने के लिए मेरे मन के अन्दर मानो जाँच पड़ताल शुरू हो
जाती है कि वहाँ उस व्यक्ति से जुड़ी हुई कोई घटना तो अंकित नहीं है। सहसा
मैं डस व्यक्ति को अमुक के रूप में पहचान लेता हूं और कहता हूं ''यह वही
व्यक्ति है, जिससे मैं अमुक स्थान पर मिला था'' आदि आदि। अब मुझे उस व्यक्ति
के बारे में पक्का ज्ञान हो चुका है।
उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण करके हम मन की चार क्रियाओं का विभाजन कर सकते
हैं -
स्मृति - स्मृतियों
का संचय तथा हमारे पूर्व-अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न
सम्भावनाएं प्रस्तुत करते हैं। यह संचय चित्त कहलाता है। इसी में हमारे
भले-बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का संचयन होता है। इन संस्कारों
का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है। यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता
है।
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