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यादें

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9607

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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।



गम छुपाने को


मुस्कुराता हूँ
ताकि गम छुपा रहे
मगर आँखें बयां कर देती हैं।

गाता हूँ
ताकि गम छुपा रहे,
मगर आवाज बयां कर देती है।
एक तो जुदाई का तेरे
दुजा नौकरी का मेरे
मिलकर बना है भारी गम
फिर भला क्या मुस्कुराऊं
मुस्कान में भी सच भर देती है।
मुस्कुराता हूँ
ताकि गम छुपा रहे
मगर आँखें बयां कर देती हैं।

सोचता था गम को भुलाने हेतु
कोई गीत मैं गुनगुनाऊं
मगर आवाज भी बेवफा निकली
अब गाने जो बैठा मैं
स्वर टुटा हुआ देती है।
मुस्कुराता हूँ
ताकि गम छुपा रहे
मगर आँखें बयां कर देती हैं।

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