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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


सिंहासन कलिजुग महाराजा।
छल बल दंभ कपट को राजा।।
प्रजातंत्र महिमा कछु गावों।
बकरी सेर साथ जल प्यावौं।।
सब समान सब कहं अधिकारा।
सब मालिक सब की सरकारा।।
को केहि देहि लेइ कोउ कैसे।
लूटहिं खाहिं मिलहिं धन जैसे।।
अरुन दनुज अंग्रेज भगाई।
भारत जननी उर हरषाई।।
राजा प्रजा भेद नहिं होइहैं।
सब सम सुखी साति उर पइहैं।।
भागे कपि लंगूर पढ़ाए।
जनता में नेता बनि आए।।
जाके मुख दो भुजा हजारा।
उदर विसाल हजम धन सारा।।
सोइ कलियुग नेता कहलावै।
काष्ठकला सिंहासन पावै।।

नेता नवधा भक्ति नित, करत पीठ आसीन।
अष्ट अंग, ऊजर बसन, आत्म रूप में लीन।।९।।

प्रथम भगति कुरसी कर चिन्तन।
दूजे निज पद रति लूटत धन।।
तीजे मुख बिहसहिं दृग आंसू।
चौथे निज उन्नति जगह्रासू।।
पंचम सब मिथ्या आचारा
छठें वचन क्रम भेद अपारा।।
सप्तम दंभ कपट व्यवहारा।
अष्टम लम्पट पर धन दारा।।
नवम रहत सब जन भरमाये।
देस जाय कुर्सी नहिं जाये।
नौ महं एकहु जाके होई।
कलियुग में नेता है सोई।।
नवधा भगति जासु उर आए।
जनद्रोही नेता कहलाये।।
तव सेवक अस आरत जननी।
करहु सुधार निसाचर दवनी।।

धन, जन, गुण्डा, पुलिस, मत, भाषण, अफसर, मंच।
आठ अंग नेता बने, सोच न जन को रंच।।१०।।

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