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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


ऊजर बसन दसन विष वारे।
नेता नाग केंचुली धारे।।
लूटत खात बिनहिं हथियारा।
इहइ अहिंसा व्रत इन धारा।।
कहहिं बहुत कछु करन न चाहीं।
 अइसन सत्य वचन निरवाही।।
निज तन निज धन निज सुत दारा।
अपरिग्रह नूतन विस्तारा।।
नारा खात पियत जन आंसू।
जिमि मरुस्थल मृग मरत पियासू।।
कस्यप सुत दिति के उपजाये।
भारत में नेता बनि आये।।
घर-घर कलह जात नहिं बरनी।
पुलह पौत्र सम अद्‌भुत करनी।।

खून चूसि मेलहिं उदर नित प्रति बाढ़त कोस।
रक्तबीज सम बढ़ि रहे, मातु कौन दे तोष।।११।।

सरन गहत तब भारत माता।
तुम भ्रामरी रूप विख्याता।।
भ्रमर रूप निज सुतनि जगावो।
अरुण सुवन सब मारि भगावो।।
कहां सक्ति लोपी जगजननी।
केहिं ते कहौं सकल दुख बरनी।।
निर्बल कर अब कौन सहारा।
दुखी दीन नहिं मिलत अधारा।।
बेंचत धरम साधु संन्यासी।
गृह त्यागी संसद अभिलाषी।।
धरम बेंचि कछु धरम विहीना।
बचन वीर छल परम प्रवीना।।
जागु जागु हे भारत जननी।
होत प्रात जिमि बीते रजनी।।
जागहु महिषासुर संहारिनि।
जागहु मधु कैटभ निरवारिनि।।
भारत मां भ्रामरी स्वरूपा।
दुर्गा, जया, विकट अति रूपा।।
जब-जब परी बिपति यहिं देसा।
मातृ शक्ति सब मिटे कलेसा।।

अबहिं न कछु बिगरयो जननि, एक जगत आधार।
असुर रूप मारहु सकल, सुखी होय संसार।।१२।।

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