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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


यहि कलिकाल सक्ति आधीना।
अस्त्र-शस्त्र बहु बने नवीना।।
मनुज दनुज बनि करत अचारा।
बाढ़त मधु कैटभ व्यवहारा।।
आदि सक्ति जननिहिं जे ध्यावै।
त्राण दुष्ट दैत्यनि ते पावै।।
जैसे पूजा वैसे सिद्धी।
साधे शक्ति-शक्ति की वृद्धी।।
सब तजि भजु देविहिं करि ध्याना।
मातु प्रगटि करती कल्याना।।
जो मेधा मुनि सुरथ सुनावा।
मार्कण्ड जैमिनि प्रति गावा।।
मातु दीन्ह येहिं कह वरदाना।
जो नित करे चरित मम गाना।
जो यह महिमा पढे हमारी।
करउँ सदा ताकर रखवारी।।

तेहिं मातुहिं भजु मूढ़ मन, पूजहु नित चित लाइ।
बिनु जननी की कृपा तें, नहिं  जिय  जरनि बुझाइ।।१३।।

मेधा देवबानि करि राखा।
चण्डी चरित करन चह भाखा।
संस्कृत सुलभ नाहिं हर जन को।
पढ़त कठिन संसय अस मन को।।
अस बिचारि जगदम्ब प्रसादा।
मार्कण्ड जैमिनि संवादा।।
सब जन सुलभ करन हित लागी।
सरस सुवानि करउँ अनुरागी।।
सत्य वचन कछु संसय नाहीं।
येहिं ते नहिं मरजाद नसाहीं।।
कीलित कियो संभु पहिले ही।
उत्कीलन बिनु सिद्धि न मिलहीं।।
भयउ सकल जग हाहाकारा।
मंत्र लुप्त नहिं रहा अधारा।।
ऋषि मुनि विनय कीन्ह सिव पाहीं।
साबर मंत्र प्रगट जग माहीं।।
साबर मंत्र गौरि अरु हर ते।
मिलत सिद्धि जे जन जप करते।

सोइ हर गौरि प्रसाद यह, चण्डी चरित पुनीत।
समुझहुं साबर मंत्र सम, जपहु लाइ उर प्रीत।।१४।।

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