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जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद

क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद

जगन्नाथ मिश्रा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9688

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी

''पूछो! प्रिय आजाद! क्या पूछना चाहते हो?'' नेहरू जी ने कहा।

''अब गांधी-इरविन समझौता होने जा रहा है। मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि इस समझौते में हम क्रान्तिकारियों का क्या स्थान है?''

''कैसा स्थान?''

''गांधी जी ने हमारे लिये क्या सोचा है? वह वायसराय से हमारे हित में क्या बातें करना चाहते हैं?''

''प्रिय आजाद! इस बारे में मैं विवश हूं। तुम्हें क्या उत्तर दूँ? क्योंकि गांधी जी क्रान्तिकारियों के लिए कुछ भी करना नहीं चाहते।''

''क्यों नहीं करना चाहते? क्या हम देश भक्त नहीं हैं? क्या देश के लिए हमारे कुछ त्याग नहीं हैं?''

''आज गांधी-इरविन समझौते में सत्याग्रहियों के लिए बहुत-सी बातें होने जा रही हैं, हमें इससे कोई द्वेष नहीं। हम जानते हैं, आपने पुलिस के डंडे खाये हैं, बहुत-बहुत कष्ट सहे हैं। बड़े-बड़े त्याग किये हैं। लेकिन हमने भी तो नंगे-भूखे रहकर, जान हथेली पर लिये हुए, देश-सेवा की है।''

''हमारे और आपके त्याग में कुछ अन्तर अवश्य है। आप गिरफ्तार हुए तो अधिक से अधिक कुछ दिनों की जेल-फूलों से विदाई - छूटने पर भी फूलों से स्वागत। किन्तु हमारी गिरफ्तारी का मतलब है, फांसी का तख्ता। हम अपने घनिष्ट से घनिष्ट मित्र और सगे भाई तक का भी विश्वास नहीं कर सकते। कहीं ऐसा न हो कि रुपये के लालच में यही सरकार का मुखबिर बन गया हो। हमने माना कि हमारा मार्ग हिंसा का है। किन्तु हमने जो कुछ किया, क्या उसमें हमारा निजी स्वार्थ था? क्या हमारे वे सभी कार्य देश-हित और देश-सेवा के लिये नहीं थे?''

''आज हमारे तीन वीर फांसी के तख्त पर लटकाये जाने वाले हैं। बहुत से कालेपानी की कोठरियों में बन्द पड़े हैं। उनके प्रति इतनी उपेक्षा का व्यवहार क्यों किया जा रहा है?'' कहते-कहते आजाद आवेश में भर गये। उन्होंने खड़े होकर पंडित नेहरू के दोनों कंधे पकड़ लिये और झकझोरकर कहने लगे, 'भारत के भावी कर्णधार! मैं आपसे पूछता हूं, ऐसा क्यों हो रहा है? मेरी बात का ठीक-ठीक उत्तर दें।''

आजाद की बातें सुनकर पास ही बैठी माता कमला के हृदय में उन नौजवान बच्चों के प्रति वात्सल्य उमड़ आया। उनकी आंख से स्नेह के आंसू बहने लगे। वह मन ही मन सोचने लगी, ये नौजवान बच्चे कितने साहसी और वीर हैं? अभी इन्होंने संसार में देखा ही क्या है! धन्य है, इनकी मातायें जिन्होंने इन शेरों को जन्म दिया है। मैं बापू से यह बात अवश्य पूछूंगी, वह इन बच्चों के लिये कुछ क्यों नहीं कर रहे हैं?

पंडित नेहरू के हृदय में भी करुणा का ज्वार फूट पडा। वह भी अपनी आंखों में आंसू भरकर रुंधे गले से बोले, ''प्रियवर ! तुम्हारी बातों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। मैं विवश हूं।''

पंडितजी की बात सुनकर आजाद कुछ देर खड़े होकर सोचते रहे फिर दोनों को प्रणाम करके जिधर से आये थे उधर ही चले गये।

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