उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
80 पाठक हैं |
ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश ने हँसने की कोशिश की, लेकिन न हँस सका। रास्ता चलते दीनू ने कहा-'भैरव के साथ जो आपने उपकार किया है वह भैरव के माँ-बाप भी नहीं कर सकते! लेकिन उसका भी विशेष दोष नहीं है। घर-गृहस्थी के साथ हम लोगों को समाज में दिन काटने पड़ते हैं। अगर आपको निमंत्रण दिया जाता, तो फिर...आप तो स्वयं ही सब बातें समझते हैं। तुमने शहर की आबहवा में जिंदगी बिताई है, तभी तुम्हें जात-पाँत का कोई विशेष विचार नहीं है न! उस बेचारे को तो अभी लड़कियों का ब्याह करना है! अपने समाज का हाल तो तुम जानते ही हो!'
रमेश ने उद्विग्न हो कर कहा-'मैं सब समझ गया!'
रमेश के मकान के दरवाजे पर खड़े हो कर ये बातें हो रही थीं। दीनू से प्रसन्न होते हुए कहा-'तुम कोई बच्चे तो हो नहीं, जो समझोगे नहीं! समझोगे क्यों नहीं? और फिर हम बुड्ढों को तो अपने परलोक की भी चिंता है-उस बेचारे गरीब ब्राह्मण को दोष नहीं दिया जा सकता!'
रमेश जल्दी से घर में घुसते हुए यह कहते हुए चला गया-'हाँ, बात तो ठीक कह रहे हैं आप!'
रमेश को अब समझने के लिए कुछ बाकी न रहा था कि उसे जाति से अलग कर दिया गया है। उसकी आँखों से क्रोध की अग्नि निकलने लगी और हृदय व्यथा से भर उठा। सबसे ज्यादा बात जो उन्हें खटक, वह यह थी कि भैरव को, मुझे न बुलाने पर; पिछले व्यवहार के लिए क्षमा कर दिया है और अब वह उनका आदमी हो गया है। रमेश कुर्सी पर बैठते हुए, एक ठण्डी आह भर कर अपने-आपसे बोला-'भगवान, इस कृतघ्न को कोई दण्ड भी है? क्या तुम क्षमा कर सकोगे इसे?'
|