उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
80 पाठक हैं |
ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'होगा तो अच्छा! लेकिन कैसे जाऊँ?' कह कर थोड़ी व्यंग्य भरी मुस्कान खिल उठी उनके होंठों पर।
रमा उनकी हँसी से क्रोधित हो कर बोली-'मैं जानती हूँ कि आप बहाना करेंगे कि यहाँ काम बहुत जरूरी है। पर मैं पूछती हूँ कि ऐसा कौन-सा जरूरी काम है, जो स्वास्थ्य से भी बहुत अधिक जरूरी है!'
रमेश ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा-'स्वास्थ्य को गैरजरूरी तो मैं भी नहीं कहता, पर दुनिया में मनुष्य के सामने कभी-कभी ऐसे भी अवसर आते हैं, जब उनके सामने के काम का मूल्य जीवन से भी अधिक होता है! पर वह तो सब कुछ तुम्हारी समझ से परे है, रमा!'
'वह कुछ भी समझना-सुनना मैं नहीं चाहती! बस, इतना जानती हूँ कि आपको कहीं बाहर जाना ही होगा! आप सरकार बाबू को सहेज जाइएगा, मैं देखभाल करती रहूँगी सब काम-धंधो की।'
रमेश ने आश्च,र्यान्वित हो कहा-'तुम करोगी देखभाल? और मेरे काम की? पर...!'
'पर-वर क्या?'
'मैं क्या विश्वाकस कर सकूँगा तुम पर?'
रमा ने सरल भाव से कहा-'चाहे कोई और न भी कर सके, पर आप तो कर ही सकते हैं!'
रमा के इस नि:संकोच दृढ़ उत्तर से रमेश विस्मय में पड़ गया। थोड़ी देर मौन रह कर बोले-'देखो, सोचूँगा!'
रमा ने उसी दृढ़ता से कहा-'सोचने का समय अब नहीं है! आपको तो आज ही कहीं बाहर जाना होगा, और यदि नहीं गए तो...।'
|