उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
थोड़ी देर बाद तक दोनों में से कोई भी न बोल सका! अब से पहले रमा के मिलते ही रमेश आवेश से भर उठता था और लाख कोशिशें करने पर भी उसका मन शांत न हो पाता था। अपने इस आवेश और उन्मत्तता पर तब वह स्वयं ही खीज उठता, हृदय शांत न हो पाता था। इस समय भी, रमा को अपने घर के एकांत में पा कर, और पिछले दिन की घटना याद करके वह फिर आवेशोन्मत्त हो उठा। लेकिन रमा के अंतिम वाक्य ने उसके उन्मत्त ज्वार को वहीं शांत कर दिया। रमा के इस आग्रह में रमेश की स्वास्थ्य-चिंता के बहाने में अपना कितना जबरदस्त स्वार्थ छिपा था-इसे सुनते ही रमेश पर कटे पक्षी की तरह अपने भीतर-ही-भीतर तिलमिला उठा और एक दीर्घ नि:श्वाअस छोड़ कर बोला -'चला जाऊँगा! पर आज तो हो नहीं सकता! समय नहीं रहा अब और फिर मेरे यहाँ से चले जाने पर तुमको जितना बड़ा लाभ होगा-उससे कहीं जरूरी है मेरा आज रात को यहीं करना! तुम अपनी दासी को बुला कर जाओ। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ।'
'आज नहीं जा सकते क्या, किसी भी तरह?'
'नहीं! दासी कहाँ गई तुम्हारी?'
'मैं अकेली ही आई हूँ।'
रमेश चकित रह गया, बोले-'क्यों? साहस कैसे किया तुमने, यहाँ अकेले आने का?'
रमा ने सुकोमल स्वर में कहा-'क्या फायदा होता-उसे ला कर भी? वह होती भी तो तुम्हारे हाथ से मेरी रक्षा नहीं हो सकती थी। मैं आ सकी इसलिए, क्योंकि तुम पर मेरा विश्वा्स था!'
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