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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


मौसी भी अंदर बैठी-बैठी चिल्ला रही थीं-बस शांतचित्त अगर था कोई तो रमा! उसने किसी पर दोष नहीं मढ़ा और न किसी का बुरा ही चीता। उसमें बिलकुल परिवर्तन आ गया था। न वह पहलेवाला गुस्सा रहा, न जिद रही और न वह अभिमान ही। बीमारी के कारण उसका रूप भी क्षीण हो चला था। चेहरे पर एक व्यथा एवं क्षोभ की कालिमा आ गई थी। आँखों से ऐसा जान पड़ता, मानो विश्वं की सारी व्यथा का सागर समा गया हो, उसकी इन दो पुतलियों में! जो दरवाजा चंडी मंडप की तरफ से है उसी तरफ से आ कर वह देवी की मूर्ति के पास खड़ी हो गई। उसे आया देख हितचिंतक उसे सुना-सुना कर, बड़े-बड़े चुने वाक्यों में नीच कौम को कोसने लगे। रमा ने उन्हें सुना और मुस्कान की रेखा खिल गई उसके होंठों पर। उस मुस्कान में एक अजीब व्यथा छिपी थी, जिसमें अपने अवसान के प्रति अपने आप ही एक व्यंग्य था, किसी अन्य के प्रति कुछ भी नहीं! यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि क्या-क्या छिपा था उसकी उस मुस्कान में?

वेणी ने बिगड़ते हुए कहा-'यह इस तरह हँस कर टाल देने की बात नहीं है! हर्गिज नहीं है! जरा पता तो चले कि आखिर है कौन इस सबकी जड़ में? यों मसल कर फेंक दूँगा उसको!' दाँत किटकिटा कर उन्होंने गुस्से से अपनी दोनों हथेलियाँ मसल डाली।

रमा उनका वह रूप देख कर सिहर उठी।

वेणी बोले-'जिस रमेश पर इन ससुरों की इतनी हिम्मत पड़ी है, उन्हें नहीं मालूम कि वही खुद जेल में पड़ा चक्की पीस रहा है। इनको तो मैं देखते-देखते ठिकाने लगा दूँगा!'

रमा शांत रही। वह काम करने बाहर निकल आई, चुपचाप करती रही और फिर उसी तरह चुपचाप वहाँ से चली भी गई।

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