उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
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हर वर्ष रमा दुर्गा पूजा बड़ी धूम-धाम से करती थी-और पूजा के एक दिन पूर्व से ही गाँव के सब गरीब किसानों को जी भर कर भोजन कराती थी। चारों तरफ से आदमियों का जमघट हो जाता उसके घर माता का प्रसाद पाने के लिए। आधी रात के बाद भी घर भर में पत्तल पर, पुरवों, सकोरों में भर कर मिठाई का दौर चलता ही रहता। चारों तरफ जूठन बिखर जाता। खाने की सामग्री इस तरह बिखरी रहती कि आदमी के पैर रखने तक की जगह न मिल पाती। यह बात नहीं कि उस उत्सव में केवल हिंदू ही आ कर शामिल होते हों, पीरपुर के मुसलमान भी बड़े चाव से आ कर हिस्सा लेते और माता का प्रसाद बड़ी श्रद्धा से खाते थे।
रमा इस वर्ष दुर्गा पूजा के अवसर पर बीमार थी, फिर भी तैयारी पूरी की गई। सप्तमी की पूजा ठीक समय हुई। उसके बाद सुबह बीती, दोपहर आया, वह भी बीता और शाम होने आई, और चंद्रमा अपना खिलता मुखड़ा दिखा कर आसमान पर ज्योत्स्ना बिखेरने लगा। लेकिन उत्सव प्रांगण में कुछ इने-गिने भद्र पुरुषों के आलावा सुनसान था। भीतर चावल पर पपड़ी पड़ी जा रही थी। भोजन सामग्री भी रखी-रखी अपने भाग्य पर रो कर, स्वयं ही सिकुड़ी-ठिठुरी जा रही थी। पर माता का प्रसाद लेनेवाले किसानों में से एक भी अभी तक नहीं आया।
वेणी बाबू मारे तैश के, पैर फटफटाते कभी बाहर जाते, कभी अंदर आते और चीखते फिर रहे थे-'इतना मिजाज इन नीच कौमों का कि हमने तो इतना सब कुछ इंतजाम किया इस सबके लिए और ये आए ही नहीं! न इसका मजा चखाया सालों को, तो बात ही क्या रही! चुन-चुन कर ठीक करूँगा ससुरों को-घर उजड़वा दूँगा!' और भी जो कुछ तैश में उनके मुँह में आता गया, सो वे कहते गए।
धर्मदास और गोविंद गांगुली भी आग बबूला हो रहे थे और घूम-घूम कर सोच रहे थे कि किसके बरगलाने से वे ससुरे नहीं आए हैं। सबको यह बड़ा ताज्जुब हो रहा था कि न एक हिंदू आया और न एक मुसलमान! दोनों ही कौमें इसमें एकमत हो गई थीं।
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