उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
उसे देखते ही वेणी ने गुस्से में लाल-पीला हो कर कहा-'आजकल तो तुम लोगों का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया है। क्यों सनातन, तुम्हारे कंधों पर जान पड़ता है, एक सिर और कुलबुला उठा।'
'जब आप सबके दो सिर नहीं, तो भला और फिर किसके होंगे, बड़े बाबू? हम गरीबों के? कभी नहीं!'
'क्या बक-बक करता है?' मारे क्रोध के वेणी काँप उठे। वेणी के यहाँ सनातन ने सारा मालमत्ता थोड़ा पहले गिरवी रखा था। तब यही सनातन दोनों जून आ कर उनकी चिरौरी करता था। आज उसके मुँह से इतनी बात!
'दो सिर किसी के भी नहीं होते-मैंने तो यही कहा है, बड़े बाबू!'
गोविंद ने बात को बढ़ा कर कहा-'तुम्हारी छाती में कितना दम-खम है, हम तो यही देख रहे हैं! भला यह भी कोई बात है कि तुम माता का प्रसाद तक लेने नहीं आए?'
सनातन ने हँसते हुए कहा-'हमारे सीने का दम-खम! कर तो चुके-आपके हाथ में जो कुछ भी था! जाने भी दीजिए उन सब बातों को, पर यह जान लीजिए कि चाहे वह माता का प्रसाद हो और चाहे कुछ भी हो, कोई भी कायस्थ ब्राह्मण के घर नहीं आएगा। भला धरती माता कैसे सहन कर सकती है, इतना बड़ा पाप!'
एक दीर्घनिःश्वारस रमा की तरफ देख कर वह बोला-'बहन, आपको मैं चेताए जाता हूँ, रमेश बाबू को सजा हो जाने के कारण पीरपुर के मुसलमान लड़के खार खाए बैठे हैं। कह नहीं सकता कि जब वे छूट कर आएँगे, तब क्या होगा! पर अभी ही दो-तीन बार वे सब बड़े बाबू के घर चक्कर लगा गए हैं, बस खैरियत ही समझो कि बड़े बाबू उस समय उनकी निगाह में नहीं पड़े!' कह कर उसने वेणी पर एक नजर डाली।
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