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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


वेणी की सारी नसें मारे भय के नीली पड़ गई थीं। नीच कौम के सनातन से यह वाक्य सुन कर भी उनकी नसों में जोश न आया।

'तो जाफर का घर है, उनका अड्डा! बता सकते हो, क्या करते हैं वे सब वहाँ?'

गोविंद के चेहरे की तरफ देखता हुआ, थोड़ी देर तक तो सनातन मौन रहा, मानो कुछ सोच रहा हो। फिर कहा उसने-'यह तो मैं नहीं जानता कि वे सब वहाँ क्या करते हैं। पर इतना आपको बता दूँ कि अपना भला चाहते हो, तो अब उधर आँखें मत उठाना। सारे हिंदू-मुसलमान नौजवान एकमत हो गए हैं! जब से छोटे बाबू जेल गए हैं, बस नारद ही बने बैठे हैं। तुमने उन्हें छेड़ा कि शिकार बने!'

कह कर सनातन तो चला गया। उसके जाने के बाद, किसी के मुँह से थोड़ी देर तो कोई बात ही न निकली। सभी के चेहरों पर, भय के मारे मुर्दनी छाई थी। रमा को उठ कर जाते देख वेणी ने कहा-'सुन लिया न सब हाल, रमा?'

रमा के होंठों को मुस्कान की रेखा छू गई। शब्द उसके मुँह से एक भी न निकला। उसकी मुस्कान ने वेणी के शरीर को तीखे तीर की तरह वेध दिया। बोले-'रमा, तुम तो हँसोगी ही! औरत हो न! तुम्हें तो घर में ही रहना है, हमको तो बाहर सब कुछ भुगतना होगा। न जाने कब कौन सिर फोड़ कर रख दे। उसी भैरव के कारण यह दिन देखना पड़ रहा है। तुमने जा कर बचा दिया उसे, नहीं तो यह सब बखेड़ा क्यों तैयार होता? यही दिन देखने होते हैं, औरतों के साथ काम करने में!'

मारे भय के वेणी का मुँह अजीब हो रहा था। रमा वेणी की नस-नस से परिचित थी, पर उसे यह आशंका न थी कि वे निर्लज्जता से अपना सारा दोष उनके माथे मढ़ देंगे। और थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़ी रह कर वहाँ से वह चली गई।

वेणी भी दो लालटेन ले, पाँच-छह आदमियों की चौकसी में, चौकन्ने हो कर अपने घर चल दिए।

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