उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
विश्वेिश्वजरी उसके रूखे बालों में अँगुलियाँ फेर रही थीं। उसके नेत्रों से अविकल अश्रुधारा बहती देख कर उसके आँसू पोंछती हुई स्नेहसिक्त स्वर में बोलीं-'तुम्हारा तो कोई दोष नहीं इसमें, बेटी! जिन्होंने तुम्हें बदनामी का डर दिखा कर ऐसा कार्य करने पर विवश किया, असल दोषी तो वे ही हैं! तुम्हें इसकी सजा क्यों भुगतनी होगी?' कह कर फिर उन्होंने रमा के आँसू पोंछे; लेकिन वे तो अविरल बह रहे थे, सो बहते ही रहे। थोड़ी देर बाद रमा बोली-'वे तो उनके शत्रु हैं! और उनका कहना ही यह है कि हर तरह से, जैसे बन पड़े; शत्रु को नीचा दिखाना ही चाहिए! पर मैं तो ऐसा कह कर अपने को सांत्वना नहीं दे सकती!'
'कह क्यों नहीं सकती?'-इतना कह कर उसकी ओर नजर डालते ही इतने दिनों से जो उनके दिल में सिर्फ एक क्षीण संदेह मात्र था, अब उनके नेत्रों के सामने साकार हो उठा। व्यथा और विस्मय से उनका अंतर अभिभूत हो उठा। रमा की व्यथा, जलन व बीमारी का सही कारण अब उनसे छिपा न रहा। रमा की आँखें बंद थीं, विश्वेरश्वारी की मुख मुद्रा पर उसकी नजर न पड़ सकी। उसने पुकारा-ताई जी!'
विश्वेदश्वीरी ने चौंक कर उसका माथा सहलाते हुए कहा-'बोलो!'
'मैं तुम्हारे सामने एक सत्य स्वीकार करती हूँ। रमेश भैया के शिक्षण से प्रेरित हो कर, गाँव के लोग अच्छी-अच्छी बातों पर विचार किया करते थे। लेकिन इधर ये लोग रमेश भैया के अपराध को और बढ़ाने के लिए षड्यंत्र कर रहे थे कि उसे किसी तरह बदमाशों का गुट साबित किया जाए। पुलिस इस मामले में हाथ में आ जाने का फिर उन्हें न छोड़ती। तभी मैंने उन लोगों को चेता दिया था।'
विश्वे श्वतरी सुनते ही सहम कर अनायास ही कह उठीं-हैं, यह सब क्या कह रही हो तुम? वेणी ने इस तरह गाँव में पुलिस का जाल बिछाने की साजिश की थी?'
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