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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


'हो तो उससे हमें क्या मतलब? चाहे पाँच हजार का हो, चाहे पचास हजार का, हमारी बला से! मैं क्यों उन सालों के लिए दो सौ का नुकसान सहूँ?'

'फिर ये लोग खाएँगे क्या, साल भर तक!'

रमेश की इस बात पर वेणी बाबू फिर एक बार खूब जोर से, अपने सारे बदन को हिलाते हुए हँसे, और फिर खाँस-खँखारकर सुस्थिर हो बोले-'पूछते हो, खाएँगे क्या? देखना, साले अभी हमारे पास दौड़ कर आएँगे, जमीन गिरवी रख कर उधार लेने! रमेश, जरा ठण्डे दिमाग से काम लो! हमारे बुजुर्ग इसी तरह राई-राई कर हमारे लिए कुछ जुटा कर रख गए हैं, और हमें भी उन्हीं की तरह बहुत समझ-बूझ कर, खा-पी कर भी कुछ और जोड़ कर, अपने बच्चों के लिए छोड़ जाना है।'

रमेश का अंतर क्षोभ, लज्जा और घृणा से विदीर्ण हो उठा। फिर भी उसने संयत स्वर में कहा-'जब आपने फैसला ही कर लिया है, तो और कुछ कहना ही बेकार है! जाता हूँ, रमा से कहूँगा! अगर वह मान गई, तो फिर आप मानें या न मानें, उससे क्या होता है?'

वेणी का चेहरा गंभीर हो उठा और उन्होंने कहा-'जाओ, कह देखो-उससे भी! जो मेरी राय है, सो उसकी होगी, और फिर वह ऐसी-वैसी लड़की नहीं, जो तुम्हारे चरके में आ जाए! उसने तो तुम्हारे बाप की नाक में दम कर दिया था। फिर तुम तो लड़के हो!'

रमेश इस अपमान की बात को सुन कर वहाँ और न ठहर सका और बिना कुछ उत्तर दिए चला गया।

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