उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
जब वह रमा के यहाँ पहुँचा, उस समय रमा तुलसी चौके के आगे दीपक जला कर, प्रणाम करके खड़ी थी। उसे आया देख कर वह दंग रह गई। उसका आँचल गले से लिपटा हुआ था, और उसकी मुद्रा ऐसी थी मानो रमेश को ही प्रणाम कर रही हो। रमेश को उस समय यह भी याद न रहा, कि कभी मौसी ने उसे यहाँ आने को मना कर दिया था। वह धड़धड़ाता हुआ सीधे अंदर घुसा चला गया था। जब रमा को उस अवस्था में देख कर चुपचाप खड़ा रहा। करीब एक महीने के बाद, उन दोनों की आज भेंट हुई थी।
'तुमने बातें तो सब सुन ही ली होंगी! मैं बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकालने के लिए तुमसे पूछने आया हूँ।'
रमा ने आँचल सिर पर सम्हालते हुए कहा -'बड़े भैया की तो इसमें राय नहीं है, फिर भला कैसे हो सकता है?'
'उनकी राय नहीं है, मुझे मालूम है! पर अकेले उनकी राय नहीं हो, तो उससे क्या?'
थोड़ी देर चुप रह कर रमा ने कहा-'माना कि आपका कहना ठीक है कि बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकाल देना ही इस समय उचित है! पर ताल की मछलियाँ कैसे रोकी जा सकेंगी?'
'वे तो नहीं रोकी जा सकेंगी इतने पानी में! उनका नुकसान तो सहना ही होगा हम लोगों को नहीं सहेंगे, तो सारा गाँव भूखों मर जाएगा।'
रमा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
रमेश ने ही कहा-'तो फिर तुम्हारी स्वीकृति है न?'
रमा ने सुकोमल स्वर में कहा-'नहीं, मैं नहीं सह सकती, इतने रुपयों का नुकसान!'
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