उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
सुन कर भी किसी ने उनका उत्तर नहीं दिया-हिस्सा करने में ही लगे रहे। हिस्सा जब हो चुका, तब वेणी ने अपने हिस्से की सभी मछलियाँ एक डलिया में रख कर कहार के सिर पर उठवा दीं और उसे आँख के इशारे से जाने को कह, स्वयं भी जाने को उद्यत हुए। रमा क्या करती, इतनी ढेर सारी मछलियों का! जो भी मौजूद थे, सभी ने अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक मछलियाँ हथिया लीं और फिर घर चलने को हुए ही थे कि रमेश का पछैया लठैत भजुआ अपने सिर से ऊँची लाठी लिए, बैल-सा, आँगन में आ कर खड़ा हो गया। उसके भीषण चेहरे से सभी डरने लगे थे। गाँव में अनेक प्रकार की झूठ-सच कहानियाँ भी फैल गई थीं उसके संबंध में। उसने अंदर आते ही रमा को दूर से ही 'माँ जी' कह कर अलग से एक लंबा सलाम किया, और आगे बढ़ कर खड़ा हो गया। रमा को पहले कभी न देख कर भी, इतनी भीड़ में कैसे उसने समझा कि ये मालकिन हैं-सो वही जाने! पास आ कर अपने कर्कश स्वर में, हिंदी और बंगला की खिचड़ी में उसने बतलाया कि वह रमेश बाबू का नौकर है, और मछलियों में से तीसरा हिस्सा लेने को ही आया है।
पता नहीं क्यों...शायद विस्मय में आ जाने के कारण उसके इस तरह आ जाने से, उसकी भीषण काया को देख कर जो डर उत्पन्न हो गया था; अथवा बात समझ न आने के कारण, रमा ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया।
भजुआ उत्तर की प्रतीक्षा में, निश्चरय में मुँह बनाए खड़ा रहा। फिर सहसा घूम कर वेणी बाबू ने उससे कड़े स्वर में कहा-'अभी रुक जा!'
मारे डर के, कहार भी और चार कदम पीछे आ कर खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक तो किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला। फिर साहस कर वेणी बाबू ने दूर से कहा-'हिस्सा? कैसा हिस्सा?'
भजुआ ने उन्हें भी सलाम झुकाया और अदब से बोला-'आपसे तो बाबूजी, पूछा भी नहीं मैंने!'
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