उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
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ताई जी के घर से लौटते-लौटते रमेश का सारा गुस्सा पानी हो गया। वह अपने मन में सोचने लगा-कितनी आसान बात थी! आखिर मैं गुस्सा करूँ भी, तो किस पर करूँ? जो अपनी जहालत में अपना-पराया, अपनी भलाई-बुराई का भी ज्ञान नहीं कर सकते, जो भलाई में बुराई का संशय करते हैं, जो अपने घरवाले, अपने पड़ोसी से ही लड़ने में अपनी बहादुरी समझते हैं, चाहे बाहरवाले के सामने भीगी बिल्ली ही बने रहें-और यह वे जान-बूझ कर नहीं करते, बल्कि उनका ऐसा स्वभाव ही बन गया है, तो फिर ऐसे लोगों पर भी क्या गुस्सा होना! किताबों में कितना गलत वर्णन होता है-गाँव की स्वच्छता का, आपसी भाईचारे का! पड़ोसी का दुख देख कर पड़ोसी दौड़ आता है, इस तरह से उसकी सहायता में तत्पर रहता है; किसी के घर में खुशी होती है तो सारा गाँव खुशी में फूला नहीं समाता। पर उसने जो कुछ किताबों में पढ़ा था, उसका नितांत उलटा पाया इन गाँवों में! जितना आपसी द्वेष-वैमनस्य गाँवों में उसे मिला, उतना शहरों में नहीं। इन्हीं सारी बातों को सोच-सोच, उनका सारा शरीर अजीब सिहरन से भर उठा। किताबों में पढ़ी धारणा के बल पर ही, जब कभी शहर के कोलाहलपूर्ण भागों में उसे बुराई दीख पड़ती, तभी उसका दिल अपने गाँव भाग चलने को व्याकुल हो उठता। पर अब जब नियति ने उसे गाँव में ला कर पटक दिया, तो उसकी सारी धारणा एक दिन में धूल में मिल गई; और आज गाँव का जो स्वरूप उसके सामने आया, वह अपने घोर विकृत रूप में-जो निरंतर पतन के गङ्ढे की तरफ ही अग्रसर होता जा रहा है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपने धर्म और समाज के इसी स्वरूप को ये सर्वांगीण सुंदर मानते हैं, और शहर के धर्म और समाज को निकृष्ट! उसी में वे परम संतुष्ट हैं।
आँगन में पैर रखते ही, रमेश ने एक अधेड़ स्त्री को, एक दस-ग्यारह वर्ष के लड़के के साथ, सहमी-सी एक कोने में बैठे देखा। रमेश को आया देख, वह उठ कर खड़ी हो गई। उस लड़के की दयनीय दशा देख कर, बिना कुछ जाने ही रमेश का दिल रो उठा। गोपाल सरकार चंड़ी मंडप के बरामदे में बैठे, लिखा-पढ़ी में लगे थे। उन्होंने वहाँ से उठ कर रमेश के पास आ कर कहा-'दक्षिणी मुहाल में इसका घर है। पिता का नाम द्वारिका पण्डित है, आपसे कुछ विनती करने आई है।'
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