उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश ने समझ लिया कि विनती का मतलब भिक्षा है! और तभी उसे फिर गुस्सा हो आया। झुँझला कर बोला-'सारे गाँव में मैं ही दानी बचा हूँ? और कोई घर में नहीं है क्या?'
'बात भी ऐसी ही है, बाबू! बड़े बाबू के समय में, द्वार पर आया व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटा। उसी आस में आज भी लोग यहीं दौड़ कर आते हैं।' बेचारी स्त्री को देख कर उसने कहा-'कामिनी की माँ! जब वह जीता था, तब उसका प्रायश्चिकत क्यों नहीं कराया? भला यह गलती नहीं है लोगों की? अब लगे दौड़ने! घर में मुर्दा पड़ा है। क्या कुछ बरतन-भाँडे नहीं हैं इसके पास?'
कामिनी की माँ उस लड़के की पड़ोसिन थी, उसने उत्तर दिया-'जो विश्वा स न आता हो मेरी बात का, तो आप खुद ही चल कर देख लें। होता, तो क्या मरे बाप को घर में छोड़ कर, इस तरह भीख माँगने आता? क्या तुमने नहीं देखा कि जो कुछ मेरे पास था, सब कुछ खर्च कर दिया मैंने इन्हीं लोगों पर, पिछले छह महीनों में ही। सोचा था कि ब्राह्मण है, वहीं इसके बच्चे भूखों न मरने लगें।'
रमेश की समझ में अब कुछ-कुछ आया। गोपाल सरकार ने सारी बात विस्तार से कही-'इस लड़के के बाप द्वारिका चक्रवर्ती को छह महीने से दमा हो गया था। आज सवेरे उनके प्राण निकल गए। बंगाल में दमा और इसी प्रकार के कई रोगों के संबंध में प्रायश्चिरत करना पड़ता है। मगर जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ; तभी लाश घर में पड़ी है, उसे कंधा लगाने कोई भी नहीं गया। अब भी प्रायश्चि़त नहीं होगा तो लाश यों ही पड़ी रहेगी। कामिनी की माँ ने ही छह माह से इसकी सहायता की थी और उसी में अपना भी सब कुछ लगा बैठी-अब इसके पास भी कुछ नहीं रहा। तभी लड़के को लेकर, आपके पास विनती करने आई है।'
थोड़ी देर मौन रह कर रमेश ने कहा-'इस समय दो बजे हैं। प्रायश्चि त न करने पर, क्या वास्तव में लाश वैसे ही पड़ी रहेगी?'
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