उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'औरों के काम में तो सुस्ती दिखाते कभी नहीं देखा आपको!'
'अगर दूसरे के काम में सुस्ती की जाएगी, तो भगवान की अदालत में उसके प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा! हो सकता है, अपने काम में सुस्ती दिखाई पर भी उत्तर देना पड़ता हो, पर उतना नहीं-यह तो निश्चीय ही है!'
थोड़ी देर मौन रह कर रमा बोली-'इस उमर में आपको परलोक की चिंता कैसे लग गई? तीन ही वर्ष तो बड़े हैं आप मुझसे!'
रमेश ने मुस्कराते हुए कहा-'तब तो तुम्हें मुझसे भी कम परलोक की चिंता रहनी चाहिए! ईश्व'र की कृपा से तुम्हारी बड़ी उमर हो, पर मैंने अपने बारे में, अपना हर दिन जीवन का अंतिम दिन समझा है।' रमेश ने यह वाक्य अपनी व्यथा के दिग्दर्शन के लिए भी कहा था, और उसका असर भी ठीक ही बैठा। रमा के चेहरे पर काली छाया दौड़ गई। थोड़ी देर मौन रह कर उसने कहा-'मैंने आपको कभी न मंदिर जाते देखा, न ध्यान करते ही! पर वह न सही, खाना खाते समय आचमन करना भी आपको याद नहीं रहा क्या?'
'याद तो है, पर यह खूब समझता हूँ कि उसका याद रहना-न-रहना एक-सा ही है! और यह सब तुम पूछ क्यों रही हो?'
'आपको परलोक की बड़ी चिंता है, इसलिए।'
रमेश निरुत्तर रहा। फिर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन रहा। बाद में रमा बोली-'हिंदू घर की किसी विधवा को, अपने किसी सगे द्वारा 'बड़ी उमर' का आशीर्वाद शाप देने के बराबर है!' थोड़ी देर मौन रह कर वह फिर बोली -'मैं यह भी नहीं कहती कि आज ही मरने को बैठी हूँ। पर यह जरूर सत्य है कि अधिक दिन तक जीने के विचार से ही मेरा सारा शरीर सिहर उठता है। परंतु आपके साथ यह बात लागू नहीं होती! वैसे तो मुझे कोई हक नहीं कि आपसे किसी बात के लिए जोर दे कर कहूँ, पर जब दूसरों के लिए मगज मारना आपको भी, दुनिया में आ जाने के बाद बचपना मालूम पड़े, तब मेरी बात याद कर लीजिएगा!'
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