उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश उठ कर बैठता हुआ बोला-'मकान मालिक से तो अभी मेरा परिचय हुआ नहीं, उनकी आज्ञा के बिना कैसे रह सकता हूँ।'
'मकान मालिक ही आपसे ठहरने का अनुरोध कर रहे हैं! मैं ही इस मकान की मालकिन हूँ।'
'भला यहाँ मकान क्यों ले रखा है?'
'यह स्थान मुझे बहुत रमणीक लगता है। जब तब यहीं आ कर दिन बिता जाती हूँ। आजकल तो यहाँ सूना-सा पड़ा है, वरना कभी-कभी तो तिल धरने तक की जगह नहीं मिलती!'
'तो फिर उसी समय आया करो न!'
रमा ने इसका उत्तर न दिया, केवल मुस्करा कर रह गई।
'तारकेश्वउर बाबा के प्रति तुम्हारी बड़ी भक्ति जान पड़ती है, क्यों?'
'वैसे मेरे भाग्य कहाँ! पर जो कुछ बन पड़ता है, साँस रहते करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए!'
रमेश ने इसके बाद कई सवाल किए। रमा भी वहीं चौखट पर बैठ गई और बात का रुख पलटती हुई बोली- 'क्या खाते हैं रात को आप?'
रमेश ने जरा मुस्करा कर कहा -'जो मिल जाए! खाने पर बैठने के बाद मैं कभी खाने के विषय में नहीं सोचता, और हमेशा अपने महाराज की अक्ल पर संतोष कर लेता हूँ।'
'आज यह उदासी कैसे है?'
रमेश न समझ सका कि रमा ने उसका मखौल उड़ाने के लिए यह वाक्य कहा है अथवा साधारण व्यंग्य में। उसने छोटा-सा उत्तर दिया-'कुछ नहीं, वैसे ही। जरा-सी सुस्ती है!'
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