उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
80 पाठक हैं |
ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
उसने रमेश के प्रश्न का तुरंत कोई उत्तर न दिया। थोड़ी देर तक तो दोनों ही चुपचाप चलते रहे, फिर उस स्त्री ने कहा-'न चलने पर, यहाँ आपको खाने -पीने में बड़ा कष्ट होगा। मैं रमा हूँ।'
रमा ने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया और पान खिला कर, उसके आराम करने के लिए, अपने ही हाथों से दरी बिछा कर दूसरे कमरे में चली गई। रमेश आँखें बंद करके दरी पर आराम करने लगा। लेटे-लेटे उसे तेईस वर्ष का जीवन इस एक क्षण में ही नितांत बदला-बदला नजर आने लगा। बचपन से ही उसका सारा जीवन निर्देश में ही बीता था, और इस उमर तक, भूख का अनुभव उन्हें सिर्फ पेट भरने तक ही था। उन्हें यह मालूम न था कि उसमें भी एक तृप्ति का आनंद होता है, जिसे आज रमा के हाथ का, उसके सामने ही, उसके माधुर्य में पके भोजन कर उसने पाया था।
रमा को चिंता थी कि वह यहाँ पर रमेश के खाने के लिए कोई विशेष सामग्री न जुटा पाई थी। सभी चीजें बहुत साधारण-सी थीं। उसे यह चिंता कचोट रही थी कि वह कहीं भूखा न रह जाए और उसके मुँह से निंदा के शब्द उसे सुनने पड़ें। पर उसके भूखे रहने में, खुद के भूखे रहने की उसे कितनी चिंता थी? उसने आज सारी लज्जा और संकोच को परे रख, अपने अभिभूत अंत:करण से सारा खाना रमेश के सामने रख दिया था, और कमी को कहीं रमेश ताड़ न ले, इसलिए स्वयं उनके सामने आ कर बैठी थी। और जब रमेश ने भोजन समाप्त कर तृप्ति की साँस ली, तो उससे कहीं बढ़ कर तृप्ति का निःश्वाकस रमा के अंत:करण से निकला-जिसे चाहे और किसी ने न देखा हो, पर अंतर्यामी से वह किसी तरह छिपी नहीं रही।
रमेश दोपहर में कभी सोने का आदी नहीं रहा, इसलिए अपने सामने की खिड़की से बाहर वर्षा के बाद धूमिल बादलों से आच्छादित आकाश को वह टकटकी बाँधे देखता रहा। इस समय से अपनी आनेवाली रिश्तेदार स्त्रियों का बिलकुल खयाल ही न रहा। तभी सहसा उसे रमा का सुकोमल स्वर दरवाजे पर से सुनाई पड़ा-'आज यहीं न रह जाए! घर तो आपको जाना नहीं है आज!'
|