उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'क्या?'
'तुमने इतनी देर तक मेरे साथ बातचीत क्यों की?'
'क्या कुछ अनुचित है?'
'यह नहीं जानती, लेकिन नयी बात है। शराब पीकर ज्ञान न रहने के पहले तुम कभी मुझसे बातचीत नहीं करते थे।'
देवदास ने उस प्रश्न का कोई उत्तर न देकर विषण्ण मुख से कहा-'आजकल शराब नहीं छूता, मेरे पिता की मृत्यु हो गयी है।'
चन्द्रमुखी बहुत देर तक उनके मुख की ओर करूणा-भरे नेत्रों से देखती रही, फिर कहा-'इसके बाद फिर पियोगे क्या?'
'कह नहीं सकता।'
चन्द्रमुखी ने उनके दोनों हाथों को कुछ खींचकर अश्रुपूर्ण और व्याकुल स्वर से कहा-'अगर हो सके तो छोड़ देना। ऐसा अमूल्य जीवन-रत्न को नष्ट मत करो!'
देवदास सहसा उठकर खड़े हो गये, कहा-'मैं चलता हूं। तुम जहां जाओ वहां से खबर देना, और अगर कुछ काम हो तो लिखना। मुझसे लज्जा मत करना।' चन्द्रमुखी ने प्रणाम करके पद-धूलि लेकर कहा-'आशीर्वाद दो, जिससे मैं सुखी होऊं और एक भीख मांगती हूं, ईश्वर न करे, किन्तु यदि कभी दासी की आवश्यकता हो, तो मुझे स्मरण करना।'
'अच्छा' कहकर देवदास चले गये।
चन्द्रमुखी ने दोनों हाथों से मुख ढांपकर रोते-रोते कहा- 'भगवान! ऐसा करो जिसमें एक बार और दर्शन मिले।'
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