उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'कुछ नहीं। सिर्फ एक पुरानी बात की याद आ गई। आज दस बरस की बात है, जब मैं प्रेम के आवेश में घर छोड़कर चली आई थी, तब मन में होता था कि कितना प्यार करूं - सम्भवत: उस समय प्राण भी दे सकती थी। फिर एक दिन एक तुच्छ गहने के लिए ऐसा झगड़ा हुआ कि फिर किसी का मुंह नहीं देखा, मन को यह कहकर संतोष दिया कि यह मुझे अच्छी तरह प्यार नहीं करते, नहीं तो क्या एक गहना न देते?'
चन्द्रमुखी एक बार फिर अपने मन में हंस उठी। दूसरे ही क्षण शान्त-गम्भीर मुख से धीरे-धीरे कहा- 'भाड़ में जाये ऐसा गहना, तब क्या यह जानती थी कि एक मामूली सिर-दर्द के अच्छा करने में प्राण तक को देना पड़ेगा। तब मैं सीता और दमयन्ती की व्यथा को नहीं समझती थी, जगाई माधव की कथा पर विश्वास नहीं करती थी। अच्छा देवदास, इस संसार में सभी कुछ सम्भव है?'
देवदास कुछ उत्तर नहीं दे सके; हत्वुद्धि की भांति कुछ क्षण देखकर कहा-'मैं जाता हूं।'
'डर क्या है, जरा और बैठो। मैं तुमको और भुलावे में नहीं रखना चाहती- मेरे वे दिन अब बीत गये। अब तुम मुझसे जितनी घृणा करते हो, मैं भी अपने से उतनी ही घृणा करती हूं। लेकिन देवदास, तुम विवाह क्यों नहीं कर लेते?'
अब मानो देवदास में निःश्वास पड़ा। थोडा हंसकर कहा-'उचित है, पर इच्छा नहीं होती।'
'न होने पर भी करो। स्त्री का मुख देखकर बहुत कुछ शान्ति पाओगे। इसे छोड़ मेरे लिए भी एक राह खुल जायेगी- तुम्हारी गृहस्थी में दासी की भांति रहकर स्वच्छन्द भाव से जीवन व्यतीत करूंगी।'
देवदास ने हंसकर कहा-'अच्छा, तब मैं तुम्हें बुला लूंगा।'
चन्द्रमुखी ने मानो उनकी हंसी न देखकर कहा-'देवदास, और एक बात पूछने की इच्छा होती है।'
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