उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
महेन्द्र ने बात नहीं समझी, परन्तु उत्सुक हो पूछा-'किसकी बात कहती हो?'
जलदबाला गम्भीर भाव से स्वामी को मन्त्रणा देने लगी-'नयी मां के कोई लड़की-लड़का तो है ही नहीं, फिर उन्हें गृहस्थी से क्यों प्रेम होने लगा, देखते ही नहीं हो सब उड़ाये डालती हैं?'
महेन्द्र ने भ्रू-कुंचित करके कहा-'क्यों कैसे?'
जलदबाला ने कहा-'तुम्हारे आंखें होतीं तो देखते! आजकल गृहस्थी का खर्च दूना हो गया, सदाव्रत, दान-खैरात, अतिथि-फकीर आदि के ऊपर अन्धाधुन्ध व्यय चढ़ रहा है। अच्छा, वे तो अपना परलोक सुधार रही हैं, किन्तु तुम्हारे लड़की-लड़के हैं? तब वे लोग क्या खायेंगे? अपनी पूंजी बिकवाकर अन्त में भीख मांगोगे क्या?'
महेन्द्र ने शैया पर बैठकर कहा-'तुम किसकी बात कहती हो, मां की?'
जलदबाला ने कहा-'मेरा भाग्य जल गया, जो ये सब बातें तुमसे मुझे कहनी पड़ती हैं।'
महेन्द्र ने कहा-'इसीलिए तुम मां के नाम नालिश करने आई हो?'
जलदबाला ने क्रोध से कहा-'मुझे नालिश-मुकदमे से काम नहीं, केवल भीतर की बातें जता दीं, नहीं तो मुझी को दोष देते।'
महेन्द्र बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे, फिर कहा-'तुम्हारे बाप के घर तो रोज हांडी भी नहीं चढ़ती, तुम जमीदार के घर के काम को क्या जानोगी?'
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