उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
इस बार जलदबाला ने भी क्रोध करके कहा-'तुम्हारे मां-बाप के घर कितनी अतिथिशालाएं हैं, जरा मैं सुनूं तो?'
महेन्द्र ने तर्क-वितर्क नहीं किया, चुपचाप सो गये। सुबह उठकर पार्वती के पास आकर कहा-कैसा विवाह किया मां, इसको साथ लेकर गृहस्थी चलाना कठिन है। मैं कलकत्ता जाऊंगा।'
पार्वती ने अवाक् होकर कहा-'क्यों?'
'तुम लोगों को कड़ी बातें कहती हैं, इसलिए मैंने उसका त्याग किया।'
पार्वती कुछ दिन से बड़ी बहू के आचरण देखती आती है, किन्तु उसने उस बात को छिपा के हंसकर कहा-'छि:! वह तो बहुत अच्छी लड़की है ऐसा न कहो!'
इसके बाद जलदबाला को एकान्त में बुलाकर पूछा- 'बहू! झगड़ा हुआ है क्या?'
सुबह से स्वामी के कलकत्ता जाने की तैयारी देख जलदबाला मन-ही-मन डरती थी, सास की बात सुनकर रोते-रोते कहा-'मेरा दोष नहीं है मां! किन्तु यही दासी सब खरच-वरच की बातें करती हैं।'
पार्वती ने तब सभी बातें सुनी और आप ही लज्जित होकर बहू की आंखें पोछकर कहा-'बहू, तुम ठीक कहती हो। किन्तु मैं वैसी गृहस्थिन नहीं हूं, इसीलिए खर्च की ओर ध्यान नहीं रहा।'
फिर महेन्द्र को बुलाकर कहा-'महेन्द्र, बिना किसी अपराध के क्रोध नहीं करना चाहिए। तुम स्वामी हो, तुम्हारी मंगल-कामना के सामने स्त्री के लिए सब-कुछ तुच्छ है। बहू लक्ष्मी है।' किन्तु उसी दिन से पार्वती ने हाथ मोड़ लिया। अनाथ, अन्धे, फकीर आदि कितने ही लोग लौटने लगे।
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