उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
मालिक ने यह सुन पार्वती को बुलाकर कहा-'क्या लक्ष्मी का भंडार खाली हो गया?'
पार्वती ने साहस के साथ उत्तर दिया-'केवल देने से ही नहीं चलता कुछ दिन जमा भी करना चाहिए। देखते नहीं, खर्च कितना बढ़ गया है?'
'इससे क्या मतलब, मुझे कै दिन रहना है, पुण्य-कर्म करके परलोक तो बनाना ही चाहिए?'
पार्वती ने हंसकर कहा-'यह तो बिल्कुल स्वार्थ की बात है। अपना ही देखोगे और लड़की-लड़कों को क्या बहा दोगे? कुछ दिन तक चुप रहो फिर सब उसी तरह चलेगा। मनुष्य के काम का कभी अन्त नहीं होता।'
अस्तु, चौधरी जी चुप हो रहे। पार्वती को कोई काम नहीं रहा, इसी से चिन्ता कुछ बढ़ गयी। किन्तु सारी चिन्ता रहती है जिसकी आशा नहीं रहती, उसकी दूसरे प्रकार की चिन्ता रहती है। पूर्वोक्त चिन्ता में सजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुख है और उत्कंठा है। इसी से मनुष्य श्रान्त हो जाते हैं - अधिक काल तक चिन्ता नहीं करते। किन्तु नैराश्य में सुख नहीं है, दुख नहीं, उत्कंठा नहीं है केवल तृप्ति है। नेत्र से जल झरता है, गम्भीरता भी रहती है, किन्तु नित्य नवीन मर्मवेदना नहीं होती। हल्के बादल के समान इधर-उधर मंडराती है। जब तक हवा नहीं लगती, तब तक स्थिरता रहती है और ज्यों ही हवा लगती है गायब हो जाती है। तन्मय मन उद्वेगहीन चिन्ता में एक सार्थक लाभ करता है। पार्वती की भी आजकल ठीक यही दशा है।
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