उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पूजा-पाठ करने के समय अस्थिर उद्देश्यहीन और हताश-सी रहती है; मन चटपट तालसोनापुर के बंसीवाड़ी, आम के बगीचे, पाठशाला, घर बांध के तीर आदि स्थानों में घूम आती है। इसके बाद वह किसी ऐसे स्थान में जा छिपती है कि पार्वती स्वयं अपने आपको ढूंढकर बाहर नहीं निकाल सकती। पहले होंठ पर कुछ हंसी की रेखा दिखाई पड़ती है, फिर तत्काल ही आंख से एक बूंद आंसू टपककर पंचपात्र के जल से मिल जाता है। तब भी दिन कटता ही है। काम-काज में, मधुर-मधुर बातचीत में, परोपकार और सेवा शुश्रूषा में दिन कटता था और अब उसे छोड़ ध्यानमग्ना योगिनी की भांति भी कटता है। कोई लक्ष्मी-स्वरूपा अन्नपूर्णा कहता था और कोई अन्यमनस्का, उन्मादिनी कहता था। किन्तु कल सुबह से कुछ और ही परिवर्तन देखा जाता है। वह कुछ तीव्र और कठोर हो गयी है। ज्वार की गंगा में हठात् भाटा का आरम्भ हुआ। घर में कोई इसका कारण नहीं जानता, केवल हम लोग जानते हैं।
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