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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा

21

मनोरमा ने गांव से एक चिट्ठी लिखी है। वह निम्न भांति है -

'पार्वती, बहुत दिन हुए हम दोनों में से किसी ने किसी को चिट्ठी नहीं लिखी; अतएव दोनों ही का दोष है। मेरी इच्छा है कि इसे मिटा दिया जाय। हम दोनों को दोष स्वीकार कर अभिमान कम करना चाहिए। किन्तु मैं बड़ी हूं, इसीलिए मैं ही मान की भिक्षा मांगती हूं। आशा है, शीघ्र उत्तर दोगी। आज प्राय: एक महीना हुआ, मैं यहां आयी हूं। हम लोग गृहस्थ-घर की लड़कियां हैं, शारीरिक दुख-सुख पर उतना ध्यान नहीं देती। मरने पर कहती है गंगालाभ हुआ और जीते रहने पर कहती है कि अच्छी है। मैं भी उसी प्रकार अच्छी हूं। किन्तु यह तो हुई अपनी बात; अब रही दूसरों की बात। यद्यपि कुछ ऐसे काम की बात नहीं है, फिर भी एक सम्बाद सुनाने की बड़ी इच्छा होती है। कल से ही सोच रही हूं कि तुम्हें सुनाऊं कि नहीं। सुनाने से तुम्हें क्लेश होगा और सुनाये बिना मैं रह नहीं सकती-ठीक मारीच की दशा हुई है। देवदास की दशा को सुनकर तुम्हें तो क्लेश ही होगा, पर मैं भी तुम्हारी बातों को स्मरण कर पाने से नहीं बच सकती। भगवान ने बड़ी रक्षा की, नहीं तो तुम सरीखी अभिमानिनी उनके हाथ में पड़कर इतने दिन के भीतर या तो गंगा में डूब मरती या विष खा लेती! उनकी बात यदि आज सुनोगी तब भी सुनना है और चार दिन बाद भी सुनना है; उसे दबाने-छिपाने से लाभ ही क्या?

'आज प्राय: छः-सात दिन हुए वह यहां पर आये हैं। तुम तो जानती हो कि द्विज की मां काशीवास करती हैं और देवदास कलकत्ता में रहते हैं, घर पर केवल भाई के साथ कलह करने और रुपया लेने आते हैं। सुनती हूं कि ऐसे ही वह बीच-बीच में आया करते हैं। जितने दिन रुपया इकट्ठा नहीं होता उतने दिन रहते हैं, रुपया पाने पर चले जाते हैं।'

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