उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'उनके पिता को मरे आज ढाई बरस हुए। सुनकर आश्चर्य होता है कि इसी थोड़े समय में ही अपनी आधी सम्पत्ति फूंक दी। द्विजदास अपने हिसाब-किताब से रहते हैं, इसी से किसी भांति अपने पिता की सम्पत्ति को अपने ही पास बचा के रखा, नहीं तो आज दूसरे लोग लूट खाते। शराब और वेश्या के पीछे सारा धन स्वाहा हो रहा है, कौन उसकी रक्षा कर सकता है? एक हम कर सकते हैं और उसमें भी देरी नहीं है। बड़ी रक्षा हुई जो तुम्हारा उनसे विवाह नहीं हुआ।' हाय-हाय! दुख भी होता है। वह सोने-जैसा वर्ण नहीं, वह रूप नहीं, वह श्री नहीं, मानो वह देवदास नहीं, कोई दूसरे ही हैं। रूखे सिर के बाल हवा में उड़ा करते हैं। आंखें भीतर घुस गयी हैं और नाक खड़ग की भांति बाहर निकली हुई है। कितना कुत्सित रूप हो गया है, यह तुमसे कहां तक कहूं? देखने से घृणा होती है, डर मालूम होता है। सारे दिन नदी के किनारे-किनारे और बांध के ऊपर हाथ में बन्दूक लिये चिड़िया मारा करते हैं। धूप में सिर चक्कर आने से वह बांध के ऊपर उसी बेर के पेड़ के साये में नीचा सिर किये बैठे रहते हैं। संध्या होने के बाद घर पर जाकर शराब पीते हैं, रात में सोते हैं या घूमते हैं, यह भगवान जाने'
'उस दिन संध्या के समय मैं नदी से जल लेने गयी थी। देखा, देवदास का मुंह सूखा हुआ है, बन्दूक हाथ में लिये इधर-उधर घूम रहे हैं। मुझे पहचानकर पास आकर खड़े हुए। मैं डर से मर गयी। घाट पर कोई नहीं था, मैं उस दिन अपने आपे में नहीं थी। ईश्वर ने रक्षा की कि उन्होंने किसी किस्म की बुरी छेड़खानी नहीं की, केवल सज्जनोचित शान्त भाव से कहा-'मनो, अच्छी तरह तो हो?'
'मैं और क्या करती, डरते-डरते सिर नीचा किये हुए कहा-'हां।'
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