उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
तब उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा-'सुखी रहो बहिन, तुम्हें देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई।' फिर धीरे-धीरे चले गये। मैं गिरते-पड़ते वहां से बड़े जोर से भागी। बाप रे! भाग्य से उन्होंने हाथ आदि कुछ नहीं पकड़ा। रहने दो इन बातों को-इस सब दुर्वृत्ति की बातों के लिखने की जगह चिट्ठी में नहीं है।
'बडा कष्ट दिया, क्यों बहिन? आज भी यदि उन्हें नहीं भूली होगी तो अवश्य ही कष्ट होगा, किन्तु लाचारी है। और यदि असावधानतावश कोई अपराध हुआ हो, तो अपने सहज गुण से इस स्नेहाकांक्षिणी-मनो बहिन को क्षमा करना।'
कल चिट्ठी आयी है। आज उसने महेन्द्र को बुलाकर कहा-'दो पालकी और बत्तीस कहारों को बुला दो, मैं अभी तालसोनापुर जाऊंगी।'
महेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा-'पालकी और कहार तो मैं बुलाये देता हूं; किन्तु दो क्यों मां?'
पार्वती ने कहा-'तुम साथ चलोगे। रास्ते में अगर मर जाऊंगी, तो मुंह में आग देने के लिए बड़े लड़के की जरूरत पड़ेगी।' महेन्द्र ने और कुछ नहीं कहा। पालकी आने पर दोनों आदमियों ने प्रस्थान किया।
चौधरी जी यह सुनकर व्यग्र हो उठे, दास-दासियों से पूछा, किन्तु कोई ठीक कारण नहीं बता सका। तब उन्होंने अपनी बुद्धि से पांच दरबान, दास-दासियां भेज दी।
एक सिपाही ने पूछा-'रास्ते में भेंट होने पर पालकी लौटा लावें कि नहीं?'
उन्होंने कुछ सोचकर कहा-'नहीं, लौटा लाने का कोई काम नहीं है। तुम लोग साथ जाना, जिससे कोई तकलीफ न हो।'
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