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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


उसी दिन संध्या के बाद दोनों पालकियां तालसोनापुर पहुंचीं। किन्तु देवदास गांव में नहीं थे, उसी दिन दोपहर में कलकत्ता चले गये थे।

पार्वती ने सिर पीटकर कहा-'दुर्भाग्य!' और फिर मनोरमा के साथ भेंट की।

मनोरमा ने पूछा-'क्या देवदास को देखने आयी थी?'

पार्वती ने कहा-'नहीं, साथ ले जाने के लिए आयी थी। उनका यहां पर अपना कोई नहीं है।'

मनोरमा अवाक् हो रही, कहा-'क्या कहती हो? जरा भी लज्जा नहीं करती?'

'लज्जा और फिर किससे? अपनी चीज अपने साथ ले जाऊंगी! इसमें लज्जा क्या है?'

'छि-छि:! क्या कहती हो? जिससे जरा भी सम्पर्क नहीं -ऐसी बात मुंह पर न लाओ।'

पार्वती ने मलिन हंसी हंसकर कहा-'मनो बहिन, ज्ञान होने के बाद से जो बात मेरे हृदय में बस रही है, जब-तब वही मुख से बाहर निकल जाती है, तुम बहिन हो, इसी से इन बातों को सुन लेती हो।'

दूसरे दिन पार्वती माता-पिता के चरणों में प्रणाम करके फिर पालकी पर सवार होकर चली गयी।

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