उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
वह चला गया। चन्द्रमुखी आज बहुत दिनों बाद फिर खिड़की पर आकर बैठी। एकटक रास्ते की ओर देखती रही। यही उसका काम है, यही करने वह आयी है। जितने दिन वह यहां रहेगी उतने दिन यही करेगी। कोई-कोई नये आदमी आना चाहते थे, द्वार ठेलते थे, किन्तु उसी समय केवलराम कहता था- 'यहां नहीं आना।'
पुराने परिचित लोगों में से यदि कोई आता तो चन्द्रमुखी बैठकर हंस-हंसकर बातें करती। बात-ही-बात में देवदास की बात पूछती। जब वे न बता सकते, तो उदास मन से विदा कर देती। रात अधिक बीतने पर स्वयं बाहर निकल जाती थी। मुहल्ले-मुहल्ले, द्वार-द्वार घूमती-फिरती छिपकर लोगों की बातें कान देकर सुनती, कुछ लोग अनेकों प्रकार की बातें करते थे, किन्तु वह जो सुनना चाहती थी, वह कहीं नहीं सुन पाती थी। आते-जाते हुए लोगों में से वह बहुतो को देवदास समझकर पास जाती थी, किन्तु जब किसी दूसरे को देखती थी तो धीरे से लौट आती थी। दोपहर के समय वह अपनी पुरानी साथिनों के घर जाती। बात-ही-बात में पूछती-'क्यों, देवदास के विषय में भी कुछ जानती हो?' वह पूछती-'कौन देवदास?'
चन्द्रमुखी उत्सुक भाव से परिचय देने लगती-'गोरा रंग है, सिर पर घुंघराले बाल हैं, ललाट के एक ओर चोट का दाग है, धनी आदमी है, बहुत रुपया खर्च करते हैं, क्या तुम पहचानती हो?' कोई पता नहीं बता सकता था। हताश होकर उदास मन से चन्द्रमुखी घर लौट आती थी। बड़ी रात तक रास्ते की ओर देखती रहती थी। नींद आने पर विरक्त भाव से मन-ही-मन कहती-यह क्या तुम्हारे सोने का समय है?
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