उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
दयाल मोदी ने ठिकाना बता दिया। चन्द्रमुखी ने कहा-'तब वह सब भी एक सेट अच्छा-सा देखकर खरीदना होगा। मैं साथ चलकर पसन्द कर लूंगी।' फिर हंसकर कहा-'मुझे जो-जो चाहिए सो तो जानते ही हो, एक दासी भी ठीक करनी होगी।'
दयाल ने कहा-'कब चाहिए?'
'जितना जल्द हो सके। दो-तीन दिन के भीतर ही ठीक होने से अच्छा होगा।' यह कहकर उसके हाथ में सौ रुपये का नोट रखकर कहा-'अच्छी-अच्छी चीजें ले आना, सस्ती नहीं देखना।'
तीसरे दिन वह नये घर चली गयी। सारा दिन केवलराम को साथ लेकर अपनी इच्छानुसार घर को सजाया एवं संध्या के पहले अपने को सजाने बैठी। साबुन से मुंह धोया, इसके बाद पाउडर लगाया, लाल रंग से पांवों को रंगा और पान खाकर होठ रंगे। फिर सारे अंगों में आभूषण धारण किये, कुरती और साड़ी पहनी। बहुत दिन बाद आज केश संवारकर सिर में टीका लगाया। आईने में मुंह देखकर मन-ही-मन कहा- अब और न जाने और क्या-क्या भाग्य में बदा है। देहाती बालक केवलराम ने यह साज-बाज और पोशाक देखकर भीत भाव से पूछा-'यह क्या, बहिन?
चन्द्रमुखी ने हंसकर कहा-'केवल, आज मेरे पति आवेंगे।' केवलराम विस्मय नेत्रों से देखता रहा।
संध्या के बाद क्षेत्रमणि आया, पूछा-'बहिन, अब यह सब क्या?'
चन्द्रमुखी ने मुख नीचा कर हंसकर कहा-'क्यों, यह सब अब नहीं चाहिए?'
क्षेत्रमणि कुछ देर चुपचाप देखता रहा, फिर कहा-'जितनी उम्र बढ़ती जाती है, उतना ही सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है।'
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