उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 367 पाठक हैं |
कालजयी प्रेम कथा
किन्तु उसकी यह प्रतिज्ञा नहीं रही। उसके माता-पिता ने उसे डांट डपटकर और मार-पीटकर धर्मदास के साथ कलकत्ता भेज दिया। जाने के दिन देवदास के हृदय में बड़ा दुख हुआ। नये स्थान में जाने के लिए उसे कछ भी कौतूहल और आनंद नहीं हुआ। पार्वती उस दिन उसे किसी तरह छोड़ना नहीं चाहती थी। कितना ही रोई, परंतु इसे कौन सुनता है। पहले अभिमान में कुछ देर तक देवदास से बातचीत नहीं की; लेकिन अंत में जब देवदास ने बुलाकर उससे कहा - 'पारो, मैं जल्दी ही लौट आऊंगा; अगर न आने देंगे तो भाग आऊंगा।'
तब पार्वती ने संभलकर अपने हृदय की अनेक आंतरिक बातें देवदास को कह सुनायीं। इसके बाद घोडा-गाड़ी पर चढ़कर पौर्टमॉन्टो लेकर, माता का आशीर्वाद और आँखों का जल बिंदु कपाल पर टीके की भांति लगाकर वह चला गया उस समय पार्वती को बहुत कष्ट हआ; आँखों से कितनी ही जल धाराएं गालों पर बहकर नीचे गिरीं। उसका हृदय अभिमान से फटने लगा।
पहले कितने ही दिन उसके ऐसे कटे। इसके बाद एक दिन प्रातःकाल उठकर उसने सोचा कि सारे दिन उसके पास कोई काम करने को नहीं है, इसके पहले पाठशाला छोड़ने के बाद प्रातःकाल से सं ध्या तक झूठ-मूठ ही खेल-कूद में कट जाता था; कितने ही काम उसे करने को रहते थे, किंतु समय नहीं मिलता था। पर अब सारे दिन यों ही पड़ी रहती है, एक काम भी खोजने पर नहीं मिलता। प्रातः काल उठकर किसी दिन चिट्ठी लिखने बैठी- दस बज गए। माता झुंझला उठी, पितामही ने सुनकर कहा - 'उसे लिखने दो। सुबह इधर-उधर न दौड़कर लिखते-पढ़ते रहना अच्छा है।'
जिस दिन देवदास का पत्र आता, वह पार्वती के लिए बड़े सुख का दिन होता है। सीढ़ी की देहली ऊपर बैठकर वही कागज हाथ में लेकर सारे दिन पढ़ती रहती है। इसी भांति दो महीने बीत गये। पत्र लिखना अथवा पाना अब उतना जल्दी-जल्दी नहीं होता, उत्साह भी कुछ कम हो गया।
|